शायर - जाँनिसार अख़्तर
ये देश के हिन्दू और मुस्लिम तेहज़ीबों का शीराज़ा है
सदियों पुरानी बात है ये, पर आज भी कितनी ताज़ा है
वो एक तड़प वो एक लगन कुछ खोने की कुछ पाने की
वो एक तलब दो रूहों के इक क़ालिब* में ढल जाने की -----दिल
यूँ एक तजल्ली जाग उठी नज़रों में हक़ीक़त वालों की
जिस तरह हदें मिल जाती हों दो सिम्त* से दो उजयालों की ---- दिशाएँ
चिशती का रजब का हर नारा यक रंगी में ढल जाता है
हर दिल पे कबीर-ओ-तुलसी के दोहों का फ़सूँ* चल जाता है---- जादू
ये फ़िक्र की दौलत रूहानी वेहदत की लगल बन जाती है
नानक का कबत बन जाती है मीरा का भजन बन जाती है
दिल दिल से जो मिल के एक हुए आदात मिलीं अन्दाज़ मिले
इक और ज़ुबाँ तामीर हुई अल्फ़ाज़ से जब अल्फ़ाज़ मिले
ये फ़िक्र-ओ-बयाँ की रानाई दुनिया-ए-अदब की जान बनी
ये मीर का फ़न, चकबस्त की लै, ग़ालिब का अमर दीवान बनी
तेहज़ीब की इस यकजेहती को उर्दू की शहादत काफ़ी है
कुछ और निशाँ भी मिलते हैं थोड़ी सी बसीरत काफ़ी है
वेहदत की इसी चिंगारी से दिल मोम हुआ है पत्थर का
अजमेर की जामा मस्जिद में ख़ुद अक्स है जैनी मन्दर का
फिर और ज़रा ये फ़न बढ़ कर रंगीन ग़ज़ल बन जाता है
मरमर की रुपेहली चाँदी से इक ताज महल बन जाता है
दिल साथ धड़ते आए हैं ख़ुद साज़ पता दे देते हैं
किस तरह सुरों का मेल हुआ ये राग सदा दे देते हैं
ठुमरी की रसीली तानों से सरमस्त घटाएँ आती हैं
छिड़ता है सितार अब भी जो कहीं ख़ुसरो की सदाएँ आती हैं
मुरली की सुहानी संगत को ताऊस-ओ-रबाब आ जाते हैं ----वाद्य यंत्र
चम्पा के महकते पहलू में ख़ुश रंग गुलाब आ जाते हैं
हर दीन से बढ़कर वो रिश्ता उलफ़त की जुनूँ सामानी का
आग़ोश में बाजीराव के वो रूप हसीं मस्तानी का
हर आन ये बढ़ती यकजेहती इक मोड़ पे जब रुक जाती है
इंसान के आगे इंसाँ की इक बार नज़र झुक जाती है
ऎ अर्ज़े-वतन मग़मूम न हो फिर प्यार के चश्मे फूटेंगे--- दुखी
ये नस्ल-ओ-नसब के पैमाने, ये ज़ात के दरपन टूटेंगे --- जात-पाँत
इस वेहदत इस यकजेहती की तामीर का दिन हम लाएँगे
सदियों के सुनहरे ख़्वाबों की ताबीर का दिन हम लाएँगे
पेशकश : अज़ीज़ अंसारी