पेशकश : अजीज़ अंसारी हज़रते दाग़ जहाँ बैठ गए, बैठ गए और होंगे तेरी मेहफ़िल से उभरने वाले
हाय, मजबूरियाँ मोहब्बत की
हाल कहना पड़ा है दुश्मन से
क्या कहिए किस तरह से जवानी गुज़र गई
बदनाम करने आई थी बदनाम कर गई
तारे गिनते हो शाम से शबेवस्ल
क्या करोगे अगर सहर न हुई
आपकी जिसमें हो मरज़ी वो मुसीबत बेहतर
आपकी जिसमें खुशी हो वो मलाल अच्छा है
निकालो दाग़ को अपने मकाँ से
चला आया ये दीवाना कहाँ से
दाग़ आँखें निकालते हैं वो
उनको दे दो निकाल कर आँखें
समझता है तू दाग़ को रिन्द ज़ाहिद
मगर रिन्द उसको वली जानते हैं
फ़लक देता है जिन को ऎश उन को ग़म भी होते हैं
जहाँ बजते हैं नक़्क़ारे वहाँ मातम भी होते हैं
लुत्फ़ेमै तुझ से क्या कहूँ ज़ाहिद
हाय, कम्बख्त तूने पी ही नहीं
उड़ गई यूँ वफ़ा ज़माने से
कभी गोया किसी में थी ही नहीं
दाग़ क्यों तुमको बेवफ़ा कहता
वो शिकायत का आदमी ही नहीं
आती है बात-बात मुझे याद बार-बार
कहता हूँ दौड़-दौड़ के क़ासिद से राह में
जिसने दिल खोया उसी को कुछ मिला
फ़ायदा देखा इसी नुक़सान में
जो गुज़रते हैं दाग़ पर सदमें
आप बन्दा नवाज़ क्या जानें
कोई नाम ओ निशाँ पूछे तो ए दाग़ बता देना
तखल्लुस दाग़ है और आशिक़ों के दिल में रहते हैं
वो दिन गए कि दाग़ थी हरदम बुतों की याद
पढ़ते हैं पांच वक़्त की अब तो नमाज़ हम
दाग़ सच है जो खुदा चाहे करे
आदमी का बस नहीं तक़दीर पर
वो ज़माना भी तुम्हें याद है तुम कहते थे
दोस्त दुनिया में नहीं दाग़ से बेहतर अपना
होशोहवास, ताबोतवाँ दाग़ जा चुके
अब हम भी जाने वाले हैं सामान तो गया
रोज़ इक दिल्लगी नई होती
रोज़ इक दिल मुझे नया मिलता
मंज़िले मक़सूद तक पहुँचे बड़ी मुश्किल से हम
ज़ोफ़ ने अक्सर बिठाया, शौक़ अक्सर ले चला
आँख के मिलते ही बाहम छागईं हैरानियाँ
आईने की शक्ल याँ, आलम वहाँ तस्वीर का
बाद उस्ताद ज़ौक़ के क्या क्या
शोहरत अफ़ज़ा कलामे दाग़ हुआ
किस क़दर उनको फ़िराक़े ग़ैर का अफ़सोस है
हाथ मलते मलते सब रंगे हिना जाता रहा