ग़ालिब की ग़ज़ल का मतलब
घर जब बना लिया तेरे दर पर कहे बग़ैर
जाएगा अब भी तू ना मेरा घर कहे बग़ैर
अब मैंने अपना घर तेरे दरवाज़े पर ही बना लिया है। अब तुझे अपने ख़ुद के घर में जाने के लिए मेरे घर में से होकर जाना पड़ेगा। अब तू ये भी नहीं कह सकता के मैं तुम्हारे घर कैसे आऊँ मुझे तुम्हारे घर का पता मालूम ही नहीं है।
कहते हैं जब रही न मुझे ताक़त-ए-सुख़न
जानूँ किसी के दिल की मैं क्यों कर कहे बग़ैर
जब मैं अपनी जिस्मानी कमज़ोरी की वजह से कुछ बोलने के क़ाबिल नहीं रहा तो तुम ये कहने लगे हो के वो तो मुँह से कुछ कहता ही नहीं मैं उसके दिल की बात कैसे जानूँ के वो क्या चाहता है।
काम उससे आ पड़ा है के जिसका जहान में
लेवे न नाम कोई सितमगर कहे बग़ैर
वो ज़ुल्म और सितम ढाने में इतना मशहूर है के उसे हर कोई ज़ालिम कहता है। मेरी बदनसीबी देखिए के मैं उसी पर आशिक़ हो गया हूँ। अब मेरा कोई भी काम कैसे पूरा होगा।
जी में ही कुछ नहीं है हमारे वरना हम
सर जाए या रहे न रहें पर कहे बग़ैर
हमारी आदत है कि हम हमेशा सच बात कह देते हैं इसके लिए हमें कितना ही बड़ा नुकसान क्यों न उठाना पड़े। हम उसकी परवाह नहीं करते। लेकिन आज हमारे दिल में कहने के लिए ऐसा कुछ नहीं है वरना हम अपने सर के कट जाने की भी परवाह नहीं करते और वह बात कह देते।
छोड़ूँगा मैं ना उस बुत-ए-काफ़िर का पूजना
छोड़े न ख़ल्क़ गो मुझे काफ़र कहे बग़ैर
मैं उस मेहबूब की परिस्तिश करना कभी नहीं छोड़ूँगा चाहे ज़माना मुझे काफ़िर होने का फ़तवा ही क्यों न दे दे।
हर चन्द हो मुशाहेदा-ए-हक़ की गुफ़्तगू
बनती नहीं है बादा-ओ-साग़र कहे बग़ैर
शायरी में चाहे अल्लाह की क़ुदरत का बखान क्यों न हो रहा हो ऐसे मौक़ों पर भी शराब, जाम, पैमाने और मैख़ाने का सहारा लेना पड़ता है। इनका सहारा लिए बग़ैर हक़ के मुशाहेदे का बखान भी मुश्किल है।
बेहरा हूँ मैं तो चाहिए दूना हो इलतिफ़ात
सुनता नहीं हूँ बात मुकररर कहे बग़ैर
मुझे कम सुनाई देता है, इसलिए मुझ पर दोहरी मेहरबानी होना चाहिए। जब तक कोई बात दोहराई न जाए मुझे सुनाई नहीं देती है।
ग़ालिब न कर हुज़ूर में तू बार-बार अर्ज़
ज़ाहिर है तेरा हाल सब उन पर कहे बग़ैर
ग़ालिब तू उनके सामने बार-बार अपना हाल-ए-ज़ार क्यों अर्ज़ कर रहा है। उन्हें तेरा हाल, तेरी परेशानियाँ सब कुछ मालूम है। तू अपने मुँह से कुछ न कहेगा तो भी तेरे हाल से वो ग़ाफ़िल नहीं।