ग़ालिब के अशआर और उनका मतलब
न था कुछ तो ख़ुदा था, कुछ न होता तो ख़ुदा होता
डुबोया मुझको होने ने न होता मैं तो क्या होता?
दुनिया में जब कुछ नहीं था, तब भी ख़ुदा था और अगर कुछ न होता तो भी ख़ुदा होता। अगर मैं न होता तो ज़ाहिर है मैं क्या होता? ग़ालिब की ये बहुत बड़ी ख़ूबी है के वो जो कुछ कहना चाहता है, अपने मुँह से न कहते हुए सामने वाले के मुँह से कहला लेता है। एक मुसलमान होने के नाते वो अपने मुँह से नहीं कह सकता के वो ख़ुदा होता। वरना उस पर इसलाम से ख़ारिज होने का फ़तवा जारी हो जाता। इसलिए वो ख़ुद सवाल उठाता है के न होता मैं तो क्या होता? लोग अपने मुँह से कहते रहें, लेकिन वो नहीं कहता के वो ख़ुदा होता।
जब हुआ ग़म से यूँ बेहिस तो ग़म क्या सर के कटने का
न होता गर जुदा तन से तो ज़ानू पे धरा होता
बहुत ज़्यादा आराम की वजह से मैं और मेरा सर बेहिस हो चुका है। अब इसे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता के वो तन पर रहे या ज़ानू पर। उसे तो कहीं न कहीं पड़ा ही रहना है। इसलिए अगर मेरा सर तन से कट कर जुदा भी हो गया है तो कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता।
हुई मुद्दत के ग़ालिब मर गया पर याद आता है,
वो हर इक बात पर कहना के यूँ होता तो क्या होता।
ग़ालिब को मरे हुए ज़माना बीत गया मगर आज भी वो सब को याद आता है। ख़ासतौर से इसलिए के हर एक बात पर कहा करता था के अगर यूँ होता तो क्या होता। यानी उसे किसी बात की कोई फ़िक्र या परवाह नहीं थी।