अज़ीज़ अंसारी
बीस बाईस साल से इन्दौर को ना जाने क्या हो गया है - न बम्बई बाज़ार में शेर ओ शायरी की मेहफ़िलें मिनअक़िद हो रही हैं और ना रानीपुरा में- वरना ये दोनो मोहल्ले अपनी अदबी ख्निदमात के लिये काफ़ी मशहूर थे - एक तरफ़ शादाँ इन्दौरी, ताबाँ इन्दौरी और बेधढक इन्दौरी का बोलबाला था यो दूसरी तरफ़ क़ैसर इन्दौरी, नश्तर इन्दौरी और ज़ंम्बूर इन्दौरी अवाम के दिल ओ दिमाग़ पर छये हुए थे-इन अदबी तक़ारीब में शायरों का इंतिख्नाब और उनसे राबिता क़ायम करने का काम बुज़ुर्ग शायर कर लिया करते थे- लेकिन कुछ ऐसे काम भी होते हैं जिन में जिसमानी ताक़त और मेहनत दरकार होती है- इस तरहा के काम नौजवान और नोम्श्क़ शायर अंजाम दिया करते थे - रानीपुरा गली न. तीन, उर्दू मैदान और बज़्मे अदब लायब्रेरी आज भी इन तक़ारीब की गवाही देते हैं- किसी ने ठीक ही कहा है के अदब की ख्निदमत और बुज़ुर्गों की दुआ कभी रायगाँ नहीं जाती- इस हक़ीक़त का सुबूत आज हम सब के सामने है- "इदराक" और "तहरीर" का ख्नालिक़ मक़सूद नश्तरी- मक़सूद ने अपनी कामयाबी और कामरानी का सेहरा हमेशा अपने बुज़ुर्गों के सर बांधा है- |
बीस बाईस साल से इन्दौर को ना जाने क्या हो गया है - न बम्बई बाज़ार में शेर ओ शायरी की मेहफ़िलें मिनअक़िद हो रही हैं और ना रानीपुरा में- वरना ये दोनो मोहल्ले अपनी अदबी ख्निदमात के लिये काफ़ी मशहूर थे |
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जो सादगी मेरे असलाफ़ से मिली मुझ को
बसद ख्नुलूस वो अपनाई सादगी मैंने
बुज़ुर्गों की दुआओं का असर मक़सूद है वरना
न होता कामराँ तू और इस क़ाबिल नहीं होता
मक़सूद ये तो हज़रते नश्तर का फ़ैज़ हैं
लाज़िम है उनकी याद को दिल में बसा रखो
सुख्नन फ़ेहमों में हो मक़सूद शामिल
सिला ये आपकी ख्निदमात का है
मक़सूद अपने इब्तेदाई दौर से ही बढे ज़हीन और समझदार साबित हुए हैं- ख्निदमत करते थे क़ैसर इन्दौरी, नश्तर इन्दौरी, सादिक़ इन्दौरी
और रौनक़ इन्दौरी जैसे कोहना मश्क़ शायरों की- साथ रहते थे आदिल जाफ़री, और अज़ीज़ इन्दौरी जैसे बाशऊर शायरों के और अपने मुताले में शरीक रखते थे ऐवाने उर्दू के संगे बुनियाद, जोश, जिगर, दाग़, इक़बाल, मोमिन, ग़ालिब और मीर को-
वक़ार ए फ़िक्र ओ फ़न का क़ाफ़िला मक़सूद लुट जाता
अगर इक़बाल ओ ग़ालिब से न अरबाब ए क़लम होते
क़द्र कीजिये उसकी ऎ मक़सूद वो है मोहतरम
नाम लेवा जो भी है इक़बाल ओ ग़ालिब मीर का
शेर ओ सुख्नन में जीत मोयस्सर न हो सकी
बाज़ी सभी तो हार गये मीरके सिवा
दाग़ ओ मोमिन को बहोत तुमने पढा है मक़सूद
अपनी ग़ज़लों में जो लफ़्ज़ों के गोहर आये हैं
मिझ को है मक़सूद ज़ौक़ ए शायरी
मोतरिफ़ हूं मैं कलाम ए मीर का
मक़सूद नश्तरी सादा दिल और नेक सीरत इंसान हैं- दिल में ख्नुदा का ख्नौफ़ और मेहबूबे ख्नुदा की याद हमेशा रहती है- इसका सुबूत तहरीर में जगह जगह दिखाई देता है- ग़ज़ल में हम्द और नात के शेर कह देना उनकी कई अहम ख्नूबियों में से एक है-
पिलाई साक़ी ए कौसर ने जो मय ए वेहदत
उसी का हम यो अज़ल से ख्नुमार लाये हैं
वो ख्नालिक़ ए हयात है सब का ख्नुदा भी है
वो लायक़ ए इबादते हम्दोसना भी है
जब भी उस ज़ात ए मुक़द्दस का ख्न्याल आया है
झुक गई सजदे में पेशानी इबादत हो गई
माह में, तारों में, शम ए बज़्म में हर शै में तू
तेरे जलवों से हुईं आंखें मुनव्वर रात भर
मक़सूद नश्तरी का ज़ौक़ ए शायरी और उनकी सादा दिली की जितनी तारीफ़ की जाये कम है- अगर कोइ ख्नुलूस से शेर ओ सुख्नन की दावत देतो ये कोसों दूर पैदल चल कर उस में शिरकत करते हैं- वो भी पूरी तय्यारी के साथ- वक़्त की क़ैद या मौसम की बेरुख्नी भी इन का रास्ता नहीं रोक सकती- इन का ये ज़ौक़ ए शायरी जुनून की हद तक है- जो आज भी क़ायम है-
जहाँ पे होती है मक़सूद शायरी अक्सर
सुना है तुम भी वहाँ रोज़ आते जाते हो
कल तो ऎ मक़सूद अच्छे शेर सुन्ने को मिले
मुनअक़िद बज़्म ए सुख्नन क्या वाक़ई है आज भी
शरीक ए बज़्म ए सुख्नन मैं भी हो सकूं मक़सूद
यही तो सोच के ताज़ा ग़ज़ल कही मैंने
वो है दीवाना ए उर्दू जिसे मक़सूद कहते हैं
सुख्नन फ़ेहमों की मेह्फ़िल में जब आया ख्नुश कलाम आया
मक़सूद क्या ये सच है वो कहते हैं आपको
शेर ओ सुख्नन से हट के कोई मशग़ला नहीं
ख्नूब है मक़सूद ये शेर ओ सुख्नन का मशग़ला
हो गई है बज़्म में पूरी सभी की आरज़ू
तीन चार दहाइयों से शेर ओ सुख्नन ही मक़सूद का मशग़ला है- ये कहना ग़लत नहीं होगा कि ये इनका ओढना है और यही इन का बिछौना-
इतनी मेहनत इतनी ख्निदमत करने के बाद जब किसी को उस का वो मुक़ाम नहीं मिलता जिस का वो मुस्तहिक़ है तो उसे तकलीफ़ तो ज़रूर होगी- वैसे मक़सूद इन बातों की क़तई परवाह नहीं करते- लेकिन उन के सामने जब उन से कमतर शायरों को नवाज़ा जाता है तो उन का हस्सास दिल ज़रा ज़ोर से धढकने लगता है और वो ये सोचने पर मजबूर हो जाते हैं कि क्या अवाम की तवज्जो अपनी तरफ़ मरकूज़ करने के लिये बुलन्द आवाज़ और तरन्नुम का होना शायरी की ख्निदमत फ़न की जानकारी से ज़्यादा ज़रूरी है-
नाम अपना शेर ओरों के और दाद मुफ़्त में
तक़दीर मे था ऐसे सुख्ननवर भी देखना
शेर ओ सुख्नन से जिनका कोई वास्ता नहीं
वो अपना नाम करते हैं कुछ जोढ तोढ कर
हैफ़ है मक़सूद वो इल्मोअदब का पासबाँ
जो ग़ज़ल गोई नहीं नग़्मा सराई मांगता
मक़सूद नश्तरी अपनी धुन और लगन के पक्के हैं- वो बग़ैर किसी लालच के शायरी की ख्निदमत क़रीब चालीस साल से कर रहे हैं- इसके
बावजूद उनमें ज़रा भी ग़ुरूर ओ घमन्ड नहीं- आज भी अपने आप को अदब का ख्नादिम समझते हैं- उनकी यही ख्नूबी उनके क़द को ऊंचा
और उनके वक़ार को बुलन्द करती है- उनकी इनकिसारी उनके एक शेर से मुलाहिज़ा फ़रमाइये-
शऊर ए ज़ौक़ जो मक़सूद तुम को मिल जाता
तो ऐसी वैसी ग़ज़ल तुम न यूं कहा करते
तहरीर मक़सूद नश्तरी का दूसरा मजमूआ ए कलाम है जो मौलाना अबुल कलाम आज़ाद अकादमी इन्दौर के माली तआवुन से शाय हुआ है -
इस कामयाब कोशिश के लिये अकादमी के ओहदेदारान और बतौरे ख्नास मक़सूद नश्तरी को दिल की गेहराइयों से मुबारकबाद-