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मिर्जा ग़ालिब शिया थे या सुन्नी

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यह बात आज भी संदिग्ध बनी हुई है कि मिर्जा ग़ालिशिया थे या सुन्नी। इस संबंध में हमारी जानकारी का आधार उनकी अपनी रचनाएं हैं जिनमें स्वयं इतना अंतर्विरोध है कि उससे हम कोई निष्कर्ष नहीं निकाल सकते। बहुत-सी बातें ऐसी हैं कि जिनके पीछे कोई आस्था या विश्वास नहीं है बल्कि वे उन्होंने दूसरों की दिलजोई और उनकी सह‍मति के लिए कह दी है। इसना अशरी मित्रों को पत्र लिखे हैं तो उनमें अपने आपको शिया और इसना अशरी प्रकट किया है। मिर्जा़ हातिब अली 'मेहर' को एक पत्र में लिखते हैं :

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'साहब बंदा इसना अशरी हूं। हर मतलब के ख़ात्मे पर 12 का हिंदसा करता हूं। ख़ुदा करे कि मेरा ख़ात्मा इसी अक़ीदे पर हो।' इस पत्र में हर वाक्य के बाद 12 का अंक लिखा है, लेकिन यही बात उनके अन्य पत्रों में नहीं मिलती।

नवाब अलाउद्दीन ख़ां सुन्नी थे। अपने धार्मिक विश्वास के बारे में उन्हें जो पत्र लिखा है उसमें लिखते हैं :

'मैं मुवाहिद-ए-ख़ालिस और मोमिन-ए-कामिल हूं। ज़बान से लाइलाहा इल्लल्लाह कहता हूं और दिल में लामौजूद इल्लल्लाह ला मुवस्सिर फ़िल वजूद अल्लाह समझे हुए हूं। मुहम्मद अलैहिस्स लाम पर नबूवत ख़त्म हुई। ये ख़त्म-उल-मुर्सलीन और रहमत-उल-आलमीन हैं। मक़्ता नबूवत का मतला इमारत, इमामत न इजमाई बल्कि मिन अल्ला है। और इमाम मिनअल्ला अली अलैहिस्सलाम हैं। सुम्माहसन, सुम्मा हुसैन। इसी तरह तो मेहदी-ए-मौऊद अलैहिस्सलाम बरीं ज़ीस्तम हम बरीं बुग-ज़रम।'

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