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एक छोटा-सा ख़त, जो ख़त्‍म ही नहीं होता

- दिनेश 'दर्द'

हमें फॉलो करें एक छोटा-सा ख़त, जो ख़त्‍म ही नहीं होता
प्रख्‍यात हास्‍य-व्‍यंग्‍य कवि ओम व्‍यास 'ओम' के निधन को एक वर्ष हो गया था। उनकी पहली पुण्‍यतिथि पर एक डिस्‍पैच तैयार करना था। लिहाज़ा, उनकी रचनाओं, उनकी शक्‍ल, उनकी भाव-भंगिमाओं, उनकी यादगार शवयात्रा और उनसे मुतअल्‍लिक उनके स्‍नेहीजनों की बातों को कई-कई बार दिलो-दिमाग़ में मथा। और जैसे-तैसे इंट्रो-हेडिंग तैयार किए। अब बारी थी मंच पर उनके साथी रहे कुछ कवियों के इस संबंध्‍ा में विचार जानने की।

(जब गूगल पर भी नहीं मिले माणिक)
इसी डिस्‍पैच के लिए हास्‍य-व्‍यंग्‍य कवि प्रदीप चौबे, डॉ. कुमार विश्‍वास, पवन जैन आदि सहित वरिष्‍ठ हास्‍य-व्‍यंग्‍य कवि माणिक वर्मा के भी विचार लिए। विचारों के साथ सबके हाफ कॉलम फोटो की भी ज़रूरत थी। अब प्रदीप चौबे और डॉ. कुमार विश्‍वास ठहरे हाई प्रोफाइल कवि और पवन जैन, जो कवि होने के साथ-साथ उस वक्‍त आईजी उज्‍जैन रेंज भी थे। अत: इनके तो हाफ कॉलम क्‍या, हर साइज़ के फोटो मिल गए लेकिन माणिक दादा (जी हां, वही 'मांगीलाल और मैंने' कविता वाले माणिक दा) का एक फोटो तक नहीं मिला। अपने निजी पुस्‍तकालय सहित गूगल भी छान मारा, फोटो नहीं मिला तो नहीं मिला।


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(अब रोए कि तब रोए)
अब सोचा कि माणिक दादा से भोपाल मोबाइल पर बात करके उनका फोटो तुरंत मेल (इंटरनेट) से मंगवा लेता हूं। उनसे बात की, तो लगा ही नहीं कि इतने बड़े कवि से बात हो रही है। अव्‍वल तो उन्‍होंने 'ओम' के बिना हिन्‍दी कवि सम्‍मेलनों का एक साल बेहद सूना गुज़रने की बात कही। मुझे भी बहुत अपनेपन से हर बार 'बेटे' कह कर ही संबोधित किया। बात-बात में इतने जज्‍़बाती हो गए, ऐसा लगा कि अब रोए कि तब रोए। और भी तमाम बातें हुईं। माणिक वर्मा जी की सादगी समझने के लिए नज़र स्‍व.'ओम' को लेकर दिए उनके वक्‍तव्‍य पर नज़र डालना भी ज़रूरी है। उन्‍होंने कहा था कि-

'ओम को गए यूं तो एक साल गुज़र गया लेकिन उसका छोड़ा हुआ सूनापन आज तक नहीं भर पाया। हमने देश-दुनिया के बेहिसाब मंच साथ पढ़े। वो किसी भी मंच की ज़ीनत हुआ करता था। 'ओम' के साथ ओमप्रकाश 'आदित्‍य', शैल चतुर्वेदी, नीरज पुरी, अल्‍हड़ बीकानेरी, श्‍याम 'ज्‍वालामुखी' के रूप में हास्‍य-व्‍यंग्‍य की एक श्रृंखला ही चली गई। इनका जाना महज़ मानसिक कष्‍ट नहीं बल्‍िक यातनापूर्ण है।'

(ऐसे में क्‍या फोटो लगाओगे भईया)
बहरहाल, मैंने उनका फोटो मेल से भेजने की बात कही तो बड़ी सादगी से बोले कि 'अब ऐसे में क्‍या फोटो लगाओगे भईया।' उनका आशय इस दुख भरे वाकए से था। मैंने कहा कि 'दादा' ज़रूरी है, तुरंत मेल से भिजवा दीजिए, तो डिस्‍पैच के साथ लग भी जाएगा और कल अख़बार में प्रकाशित हो जाएगा। मैं नहीं चाहता कि इतना महत्‍वपूर्ण डिस्‍पैच किसी के फोटो के बिना जाए। मेल और इंटरनेट का नाम सुनकर तो जैसे वो अवाक् रह गए। उनकी आवाज़ से ऐसा लगा जैसे हम छठी शताब्‍दी में रह रहे हों और मैंने उनसे 21वीं सदी की बात कर ली हो। बोले कि 'बेटे, ये इंटरनेट-विंटरनेट के चक्‍कर में मत फंसाओ यार।

(इंटरनेट वाले के पास नहीं होगा अपना फोटो)
मैंने निराशापूर्ण लहजे में कहा कि दादा, ये तो हद हो गई। इंटरनेट पर ज़माने भर के फोटो हैं, बस्‍स आपका ही फोटो नहीं मिला। ये तो ग़लत बात है। इस पर भी वो मुस्‍कुराए और बोले कि भईया इंटरनेट पर तो बड़े-बड़े लोगों के फोटो होते होंगे शायद, अपन तो ज़मीन से जुड़े हुए छोटे लोग हैं यार। इस पर मैंने कहा कि दादा ऐसी कोई बात नहीं है। तो बोले कि इंटरनेट के फोटोग्राफर के पास हमारा कोई फोटो होगा नहीं इसलिए नहीं मिला होगा आपको, अगर उसके पास हमारा फोटो होता तो वो लगाता क्‍यूं नहीं।

(फोटो के साथ मिला ख़त भी)
फिर बोले कि 'तुम परेशान मत हो बेटे, तुम्‍हारे लिए बहुत ज़रूरी है लेकिन अभी तो कोई है नहीं, जिसे डाकघर भेजूं। कल याद से सुबह पहली फुर्सत में फोटो भिजवा दूंगा तुम्‍हारे पास।' मैंने भी सोंचा कि अब इस डिस्‍पैच के साथ तो फोटो लगने से रहा लेकिन मंगवा ही लेते हैं, फिर कभी काम आएगा। लिहाज़ा, कुछ दिनों बाद उनका एक हाफ कॉलम फोटो तो मिला ही, साथ ही उनका एक हस्‍तलिखित ख़त भी मिला।

(सुंदर लेकिन दरके-दरके से हर्फ़)
उनके लिखे सुंदर, छोटे-छोटे लेकिन दरके हुए-से हर्फ़ (अक्षर)। साफ लग रहा था कि उम्र के इस मोड़ पर ये ख़त लिखने में उन्‍होंने कितनी मेहनत की होगी। वे चाहते तो महज़ फोटो ही भेज देते लेकिन सदक़े उनकी सादा मिज़ाजी के। कंपकंपाते हाथों से ही सही, उन्‍होंने ख़त भी लिक्‍खा। उस पर उनका वात्‍सल्‍यपूर्ण आमंत्रण भी था कि 'बेटे, भोपाल आओ तो घर ज़रूर आना। मुझे बहुत ख़ुशी होगी।'

(जैसे कुछ छुपा हो तहरीर में)
सुनने में आ रहा है कि यह मशीनी दौर है और इसमें मानवीय संवेदनाएं रफ़्ता-रफ़्ता शून्‍य होती जा रही हैं। शायद हो भी रही हों लेकिन माणिक दादा के साथ हुए इस अनुभव ने मुझे इस बात को नकारने का माद्दा दे दिया। मैंने सोचा कि माणिक दा जैसा व्‍यक्‍तित्‍व ही सच्‍चा कवि हो सकता है, जो पैसे और प्रसिद्धि के अधीन नहीं बल्‍कि प्रेम और संवेदनाओं के अधीन होता है। जो लिखने से लाचार होते हुए भी मेरे इसरार पर अपना फोटो तो भेजता ही है। साथ ही लरज़ते हाथों की मजबूरी के बावजूद ख़ुद को ख़त लिखने से नहीं रोक पाता।

एक ऐसा ख़त, जो देखने में तो यही कुछ 5 या 6 लाइन का हो लेकिन बार-बार पढ़ने के बाद भी पता नहीं क्‍यूं आज तक उस ख़त से जी नहीं भरा। आज भी हाथ लगने पर कई-कई बार वह ख़त पढ़ता हूं, जैसे कुछ और भी छुपा हो उस ख़त में तहरीरों के सिवा, जिसे तलाशने के लिए निगाहें बार-बार पहुंच जाती हैं फिर से ख़त की शुरुआत वाले सिरे पर...


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