सवाल- कौसर साहब, अपनी पैदाइश और बचपन के बारे में कुछ बताइए।
जवाब- उन्नीस नवम्बर उन्नीस सौ चौंतीस को इलाहाबाद (यू.पी.) में मेरी पैदाइश हुई। शाजापुर (मध्यप्रदेश) में अपने नाना हाजी हाफ़िज़ बदरुद्दीन से उर्दू, फ़ारसी और अरबी की इब्तेदाई तालीम हासिल की। शुजालपुर, उज्जैन और भोपाल के स्कूल और कॉलेज में पढ़कर बी.ए. और फिर एलएलबी तक तालीम हासिल की।
बचपन शाजापुर में गुज़रा। कोई शरारत याद नहीं। घर का माहौल अच्छा था। ख़ानदान के ज़्यादातर लोग तालीम याफ़्ता थे। उज्जैन और भोपाल में डॉ. शिवमंगलसिंह सुमन, डॉ. ज्ञानचन्द जैन, डॉ. सलीम हामिद रिज़वी और डॉ. अबू मोहम्म्द सहर जैसे उस्तादों से तालीम हासिल करने का मौक़ा मिला।
नाना, दादा दोनों ज़मींदार थे। इसलिए घर के मआशी हालात अच्छे थे। 1959 में घरवालों ने उर्दू में एम.ए. पास ख़ानदानी लड़की से शादी कर दी। मध्यप्रदेश सरकार की मुलाज़ेमत इखतियार की और कई ओहदों पर काम करते हुए सिविल सप्लाय कारपोरेशन में जनरल मैनेजर के ओहदे से रिटायर हुआ।
सवाल- अब कुछ अपनी अदबी ख़िदमात के बारे में बताइए।
जवाब- 14-15 साल की उम्र से शायरी कर रहा हूँ। छपवाने और मुशायरों में पढ़ने का शौक़ नहीं रहा। रिटायरमेंट के बाद 1995 से यह काम शुरू किया। ख़ुदा का शुक्र है अब तक 14 शेरी मजमुए, एक अफ़सानवी मजमूआ और पाँच तालीफ़ात शाए हो चुकी हैं।
सवाल- इतनी ख़िदमात के बाद तो कई एज़ाज़ात और कई इनआमात मिल चुके होंगे।
जवाब- कोई बड़ा एज़ाज़ या इनआम नहीं मिला, लेकिन मैं मुतमइन हूँ। परेशानी का शिकार वे लोग होते हैं जो सरकार या अकादमी से ज़्यादा उम्मीदें वाबस्ता कर लेते हैं।
सवाल- हिन्दुस्तान में उर्दू के बारे में कुछ बताइए।
जवाब- उर्दू का नुक़सान तो आज़ादी के बाद ही हो गया था। अब उर्दू वाले दस्तूरी दायरे में उर्दू के लिए लड़ाई लड़ रहे हैं, लेकिन शुमाली भारत के उर्दू वाले संजीदा नहीं हैं। जुनूबी भारत इस मामले में बेदार है। उर्दू हिन्दुस्तानी ज़ुबान है इसलिए ज़िन्दा रहेगी और तरक़्क़ी भी करेगी।
सवाल- उर्दू वाले उर्दू के साथ कैसा बरताव कर रहे हैं?
जवाब- अंग्रेज़ी के अलावा सभी ज़बानों का हाल एक जैसा है- उर्दू का कुछ ज़्यादा ख़राब है। हर आदमी अपने बच्चों को अंग्रेज़ी पढ़ाना चाहता है। सरकारी स्कूलों में कहीं-कहीं उर्दू एक मज़मून की तरह लिया जा सकता है, लेकिन यहाँ भी कुछ स्कूलों में उर्दू पढ़ाने वाले नहीं हैं। कहीं निसाब की किताबें नहीं हैं। उर्दू मीडियम से निकला बच्चा न दीन का रहता है और न दुनिया का। उर्दू से हमदर्दी रखने वालों को बहुत संजीदगी से इस मसअले पर ग़ौर करना चाहिए।
सवाल- अपनी ताज़ा तख़लीक़ात के बारे में कुछ बताइए।
जवाब- मैं बुनियादी तौर पर ग़ज़ल का शायर नहीं हूँ। 11 मजमूए छपने के बावजूद ग़ज़ल का कोई मजमूआ नहीं था। इसलिए हाल ही में एक मजमूआ 'मौज ए गुल' शाए हुआ है।
स. इन दिनों शब ओ रोज़ कैसे गुज़र रहे हैं।
ज. अपने आप को अदबी ख़िदमत में मसरूफ़ रखता हूँ। कई सालों से अदबी जरीदा कारवाने अदब निकाल रहा हूँ। हज़ारों मुश्किलात का सामना करते हुए कारवाने अदब का सिलसिला जारी रखे हुए हूँ। एहले अदब से बार-बार गुज़ारिश करता हूँ कि इसके साथ तआवुन करें। आपने जरीदा देखा होगा, आप से भी तआवुन की गुज़ारिश कर रहा हूँ।
कौसर साहब, हमारा हर तरह का तआवुन आपके साथ है। हम आपको यक़ीन दिलाते हैं िक इस अदबी ख़िदमत में हम हमेशा आपके साथ रहेंगे। आपने अपना क़ीमती वक़्त हमारे साथ गुज़ारा आपका तहेदिल से शुक्रिया।