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तबसिरा : किताब 'तितलियाँ आसपास'

हमें फॉलो करें तबसिरा : किताब 'तितलियाँ आसपास'
- तबसिरा निगार डॉ. हदीस अंसार

अज़ीज़ अंसारी की नई किताब 'तितलियाँ आसपास' पर तबसिरा

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शायरी फ़िक्र ओ शऊर के इज़हार का ज़रीआ है। जब इसमें रिवायत से एहतेजाज और तजरुबात से कोंपलें निकालने का अमल जारी होता है तो मेरे ख़्याल में मक़बूल अदब (पापुलर लिटरेचर) वजूद में आता है और उसकी असर आफ़रीनी से ज़ुबान ओ अदब का गुलिस्तान मोअत्तर हो जाता है।

अज़ीज़ अंसारी की शायरी ने भी इन्हीं अमली तजरुबात के हिसार में अपनी मक़बूलियत की मंज़िलें तय की हैं। इनका तअल्लुक़ मालवा के एक ख़ूबसूरत शहर इन्दौर से है, जिसकी ख़ुनक रातों और मोतदिल मौसम की तारीफ़ अबुल फ़ज़्ल फ़ैज़ी और मौलाना अबुल कलाम आज़ाद ने भी की है।

वे भी अपने फ़िक्र ओ शऊर को ताज़गी पहुँचाने के सबब क़याम पज़ीर हुए थे, लेकिन अज़ीज़ अंसारी अब बज़ात ए ख़ुद इस मक़ाम से बलन्द होकर कायनात-ए-उर्दू के चश्म ओ चिराग़ और अपने तजरुबात के सबब माहिर फ़नकार बन गए हैं। उनकी तेहरीरों में रियाज़त ए फ़न, ज़ुबान ओ बयान की ख़ुसूसयात, असलूब की दिलकशी और जाज़बियत का नुमाय़ाँ वस्फ़ पाया जाता है।

'तितलियाँ आसपास' इनका नया शेरी मजमूआ है, इससे क़ब्ल इन्होंने 'आहू ए रमख़ूरदा' ग़ज़ल को भी अपने सहर और एजाज़ से नई ताज़गी अता की है, जिसके चरचे एवान ए उर्दू में दूर दूर तक हैं। अब इनके तजरुबात का दूसरा मैदान तसलीस निगारी है। आज़ादी के बाद इस नई सिंफ़ की तरफ़ तवज्जो देने वालों में अव्वलीन नाम हिमायत अली शायर और साहिल अहमद का आता है।
  अज़ीज़ अंसारी की शायरी ने भी इन्हीं अमली तजरुबात के हिसार में अपनी मक़बूलियत की मंज़िलें तय की हैं। इनका तअल्लुक़ मालवा के एक ख़ूबसूरत शहर इन्दौर से है, जिसकी ख़ुनक रातों और मोतदिल मौसम की तारीफ़ अबुल फ़ज़्ल फ़ैज़ी और मौलाना अबुल कलाम आज़ाद ने भी की है।      


बाद के लोगों ने ज़ुबान का ज़ायक़ा बदलने की ख़ातिर इसमें कुछ कह लिया है और अपने-अपने तौर पर इसे कभी सलासी, कभी मुसल्लस तो कभी तराईले का नाम देते रहे। हिमायत अली शायर का इस सिंफ़ में अहम काम यह है कि उन्होंने पहली बार इस सिंफ़ को क़वाफ़ी के निज़ाम से निजात दिलाकर सलासी का नाम दिया और इसे असरी आगही के इज़हार का वसीला बनाया।

वहीं साहिल अहमद ने इसे मुसल्लस का नाम दिया और इसके तीनों मिसरों में वज़्न, क़वाफ़ी और रदीफ़ का इल्तेज़ाम रखा। अज़ीज़ अंसारी ने भी इसी रिवायत के चमपिंग बोर्ड से अपने फ़िक्र ओ शऊर और तजरुबात से एक नया चश्मा जारी किया है और इसे तसलीस का नाम दिया है।

इस तजरुबे के लिए ये क़ाबिल ए मुबारकबाद हैं। इस सिंफ़ में इनका कमाल ये है कि माज़ी की रविश को इन्होंने यकसर नज़र अन्दाज़ कर दिया है। इनकी तसलीस के तीनों मिसरे हम वज़्न तो होते हैं साथ ही पहले और तीसरे मिसरे में क़वाफ़ी और रदीफ़ का भी इलतेज़ाम होता है। इस तरह इनका तजरुबा हिमायत अली शायर और साहिल अहमद से बिल्कुल अलग हो जाता है और नज़्म में तासीर और नग़मगी की फ़िज़ा क़ाइम हो जाती है जो क़ारी को बाँधे रखती है- मसलन

ग़म की बारात ले गए होते
जाने वाले चले गए तन्हा
मुझको भी साथ ले गए होते

शब हुई झिलमिला गए जुगनू
सुन के मेरे तबादले की ख़बर
उसकी आँखों में आ गए आँसू

रिवायत से हटकर किसी नई सिंफ़ में तजरुबा करना और उसे मक़बूल ए ख़ास ओ आम बनाना बच्चों का खेल नहीं है। इसमें मुसलसल रियाज़त और जिगरकारी की ज़रूरत पड़ती है। अज़ीज़ अंसारी इस तसलीस निगारी की सिंफ़ को मक़बूल ए ख़ास ओ आम बनाने में उन तमाम मराहिल से गुज़रे हैं जिससे एक कामिल फ़नकार को गुज़रना पड़ता है। इन्होंने हर क़दम पर मुरव्वजा रिवायती ख़्यालात ओ मज़ामीन से शऊरी तौर पर इजतेनाब किया है। इनकी पूरी शायरी में इंसान के इनफ़िरादी और इज्तेमाई मसाइल जगह-जगह नज़र आते हैं- अज़ीज़ ने आज के दुख, अलम, आशूब की भरपूर आईनादारी की है।

इंसानी समाज में सालेह इक़दार की नायाबी और मुनफ़ी क़दरों की कसरत, जब्र ओ सितम, इसतीसाल और इसतेहसाल करने वाले और उन आराम को सहने वाले, दोनों तबक़ों की सच्ची तस्वीर कशी की है-

अज़ीज़ अंसारी अपनी बात कहने के लिए तशबीह, इस्तेआरा, तमसील, कनाया या रम्ज़ का सहारा नहीं लेते हैं बल्कि हर मंज़र हर कैफ़यत और हर वाक़िए को निहायत बेबाकी और सदाक़त से बयान करते हैं। इस तर्ज़ ए बयान से उनका फ़न हरदिल अज़ीज़ बन गया है। वो ख़ुद भी अज़ीज़ हैं और ये ख़ुसूसयत उनकी शख़सियत का आईना बन गई है। यक़ीनन ये असलूब इनकी तसलीस निगारी के फ़न को मक़बूल ए आम बनाएगा।

किताब का नाम -' तितलियाँ आस पास'
शायर --------अज़ीज़ अंसारी
नाशिर (प्रकाशक)- मध्य प्रदेश लेखक संघ, भोपाल 462001
क़ीमत --120/-

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