1.
है दिल को शौक़ उस बुत-ए-क़ातिल की दीद का
होली का रंग जिस को लहू है शहीद का
दुनिया परस्त क्या रहे उक़बा करेंगे तै
निकलेगा ख़ाक घर से क़दम ज़न मुरीद का
होने न पाए ग़ैर बग़लगीर यार से
अल्लाह यूँ ही रोज़ गुज़र जाए ईद का
सारा हिसाब ख़त्म हुआ हश्र हो चुका
पूछा गया न हाल तुम्हारे शहीद का
जाके सफ़र में भूल गए हमको वो अमीर
याँ और दोस्तों ने लिखा ख़त रसीद का
2.
फ़िराक़-ए-यार ने बेचैन मुझको रात भर रक्खा
कभी तकया इधर रक्खा, कभी तकया उधर रक्खा
बराबर आईने के भी न समझे क़द्र वो दिल की
इसे ज़ेर-ए-क़दम रक्खा उसे पेश-ए-नज़र रक्खा
तुम्हारे संग-ए-दर का एक टुकड़ा भी जो हाथ आया
अज़ीज़ ऐसा किया कि मर कर उसे छाती पे धर रक्खा
जिनाँ में साथ अपने क्यों न ले जाऊँ मैं नासेह को
सुलूक ऐसा ही मेरे साथ है हज़रत ने कर रक्खा
बड़ा एहसाँ है मेरे सर पे उसकी लग़ज़िश-ए-पा का
कि उसने बेतहाशा हाथ मेरे दोश पर रक्खा
तेरे हर नक़्श-ए-पा को रेहगुज़र में सजदा कर बैठे
जहाँ तूने क़दम रक्खा वहाँ हमने भी सर रक्खा
अमीर अच्छा शगून-ए-मय किया साक़ी की फ़ुरक़त में
जो बरसा अब्र-ए-रेहमत जा-ए-मय शीशे में भर रक्खा