यही है खाक नशीनों की ज़िन्दगी की दलील
क़ज़ा से दूर है ज़र्रों का इंकिसारे जमील
वही है साज़ उभारे जो डूबती नबज़ें
वही है गीत नफ़स में जो हो सके तहलील
दिखाई दी थी जहाँ से गुनाह की मंज़िल
वहीं होती थी दिल-ए-नासबूर की तशकील
समझ में आएगा तफ़सीर-ए-ज़िन्दगी क्या खाक
कि हर्फ़-ए-शौक़ है अजमाल-ए-बेदिली तफ़सील
ये शाहराह-ए-मोहब्बत है आगही कैसी
बुझा सको तो बुझा दो शऊर की क़न्दील
सदा-ए-नाज़ भी आती है हम रकाब-ए-नसीम
न हो सकी है न होगी बहार की तकमील
हज़ार ज़ीस्त है पाइन्दातर मगर असरार
अजल न हो तो बने कौन बार-ए-ग़म का कफ़ील