आज राही जहाँ से 'दा़ग़' हुआ
खाना-ए-इश्क' बे चिराग़ हुआ
ऐसी क्या बू समा गई तुम को
हम से जो इस क़दर दिमाग़ हुआ
बाद उस्ताद-ए-जौक़ के क्या-क्या
शोहरत अफ़जा कलाम-ए-दाग़ हुआ
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आखिर को इश्क़ क़ुफ्र से ईमान हो गया
मैं बुत परस्तीयों से मुसलमान हो गया
रिन्दान-ए-बेरिया को है सोहबत किसे नसीब
ज़ाहिद भी हम में बैठ के इंसान हो गया
लो ऐ बुतो सुनों ! कि 'दाग़'-ए-सनम परस्त
मस्जिद में जा के आज मुसलमान हो गया
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चुप रहेंगे वह हया से कब तक
गुस्सा इलजाम से तो आएगा।