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मेरा सलाम कहियो, अगर नामाबर मिले

ग़ालिब की ग़ज़ल

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तस्कीं को हम न रोयें, जो ज़ौक़-ए-नज़र मिले
हूरान-ए-खुल्द में तिरी सूरत मगर मिले

अपनी गली में, मुझको न कर दफ़्न, बाद-ए-कत्ल
मेरे पते से ख़ल्क़ को क्यों तेरा घर मिले

साक़ीगरी की शर्म करो आज, वरना हम
हर शब पिया ही करते हैं मै, जिस क़दर मिले

तुझसे तो कुछ कलाम नहीं, लेकिन ए नदीम
मेरा सलाम कहियो, अगर नामाबर मिले

तुमको भी हम दिखाएँ, कि मजनूँ ने क्या किया
फुर्सत कशाकश-ए-ग़म-ए-पिन्हाँ से गर मिले

लाज़िम नहीं, कि खिज्र की हम पैरवी करें
माना कि इक बुजुर्ग हमें हमसफर मिले

ऐ साकिनाना-ए-कूच : -ए-दिलदार देखना
तुमको कहीं जो 'ग़ालिब' -ए-आशुफ्‍ता सर मिले

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