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मोमिन की ग़ज़लें

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, मंगलवार, 8 जुलाई 2008 (11:23 IST)
1. हम समझते हैं आज़माने को
उज़्र कुछ चाहिए सताने को

संग-ए-दर से तेरे निकाली आग
हमने दुश्मन का घर जलाने को

Aziz AnsariWD
चल के काबे में सजदा कर मोमिन
छोड़ उस बुत के आस्ताने को

2. दफ़्न जब खाक में हम सोखता सामाँ होंगे
माही के गुल, शम्म-ए-शबिस्ताँ होंगे --- ?

तू कहाँ जाएगी कुछ अपना ठिकाना कर ले
हम तो कल ख्वाब-ए-अदम में शब-ए-हिजराँ होंगे

एक हम हैं कि हुए ऐसे पशेमान कि बस
एक वो हैं कि जिन्हें चाह के अरमाँ होंगे

हम निकालेंगे सुन ए मौज-ए-सबा बल तेरा
उसकी ज़ुलफ़ों के अगर बाल परेशाँ होंगे

  न बिजली जलवा फ़रमा है न सय्याद निकल कर क्या करें हम आशयाँ से      
फिर बहार आई वही दश्त नवरदी होगी
फिर वही पाँव वही खार-ए-मुग़ीलाँ होंगे

मिन्नत-ए-हज़रत-ए-ईसा न उठाएँगे कभी
ज़िन्दगी के लिए शर्मिन्दा-ए-एहसाँ होंगे?

उम्र तो सारी क़टी इश्क़-ए-बुताँ में मोमिन
आखरी उम्र में क्या खाक मुसलमाँ होंगे

3. ये हासिल है तो क्या हासिल बयाँ से
कहूँ कुछ और कुछ निकले ज़ुबाँ से

बुरा है इश्क़ का अंजाम यारब
बचना फ़ितना-ए-आखिर ज़माँ से

मेरा बचना बुरा है आप ने क्यों
अयादत की लब-ए-मोजज़ बयाँ से

वो आए हैं पशेमाँ लाश पर अब
तुझे ए ज़िन्दगी लाऊँ कहाँ से

न बोलूँगा न बोलूँगा कि मैं हूँ
ज़्यादा बद गुमाँ उस बदगुमाँ से

न बिजली जलवा फ़रमा है न सय्याद
निकल कर क्या करें हम आशयाँ से

बुरा अंजाम है आग़ाज़-ए-बद का
जफ़ा की हो गई खू इमतिहाँ से

खुदा की बेनियाज़ी हाय 'मोमिन'
हम ईमाँ लाए थे नाज़-ए-बुताँ से

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