पेशकश : अज़ीज़ अंसारी
1. शग़्ल* बेहतर है इश्क़ बाज़ी का------काम
क्या हक़ीक़ी* व क्या मजाज़ी* का-----असली, नक़ली
हर ज़ुबाँ पर है मिस्ले-शाना मदाम
ज़िक्र तुझ ज़ुल्फ़ की दराज़ी का
होश के हाथ में इनाँ* न रही--------लगाम
जब सूँ देखा सवार ताज़ी* का------ अरबी
गर नहीं राज़-ए-इश्क़ से आगाह
फ़ख़्र बेजा है फ़ख़्र-ए-राज़ी का
ऎ वली सर्व क़द कूँ देखूँगा
वक़्त आया है सरफ़राज़ी*------सर ऊँचा करने का
2. मुफ़लिसी सब बहार खोती है
मर्द का ऎतबार खोती है
क्योंके हासिल हो मुझको जमईय्यत*---------सुकून, क़रार
ज़ुल्फ़ तेरी क़रार खोती है
हर सहर* शोख़ की निगह की शराब---------सुबह, सवेरे
मुझ अंखाँ का ख़ुमार खोती है
क्योंके मिलना सनम का तर्क* करूँ---------छोड़ना
दिलबरी इख़्तियार खोती है
ऎ वली आब* उस परीरू* की---चमक, परी जैसे मुखड़े वाली
मुझ सिने का ग़ुबार खोती है