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ग़ज़ल-- बेखुद देहलवी

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, शनिवार, 12 जुलाई 2008 (11:24 IST)
वो सुनकर हूर की तारीफ़, परदे से निकल आए
कहा फिर मुस्कुराकर, हुस्न-ए-ज़ेबा इसको कहते हैं

अजल का नाम दुश्मन दूसरे मानी में लेता है
तुम्हारे चाहने वाले तमन्ना इस को कहते हैं

मेरे दफ़न पे क्यों रोते हो आशिक़ मर नहीं सकता
ये मर जाना नहीं, सब्र आना इसको कहते हैं

नमक भर कर मेरे ज़ख्मों में तुम क्या मुस्कुराते हो
मेरे ज़ख्मों को देखो मुस्कुराना इसको कहते हैं

ज़माने की अदावत का सबब थी दोस्ती जिनकी
अब उनको दुश्मनी है हम से,दुनिया इस को कहते हैं

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