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ग़ज़ल - ज़ोक

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सर बवक्त ए ज़िबह अपना उसके ज़ेर-ऐ-पाए ह
ये नसीब, अल्लाहो अकबर, लोटने की जाए ह

रुख़सत ऐ रिन्दाँ ! जुनू ज़ंजीर-ए-दर खड़काए ह
मुजदः ख़ार-ए-दश्त फिर तलवा मेरा खुजलाए ह

दम की दम सीने में आकर ज़ो'फ़ से ये गुफ़्तग
देखिए अब तक खुदा किस तरह से पोंहचाए ह

बस करम सोज़ दुरूँ भुन जाएँगे दिल और जिग
रहम जोश ए गिरया छाती फिर अभी भर आए ह

नज़्अ में भी ज़ोक को बड़ा ही है बस इन्तिज़ा
जानिब ए दर देख ले है जब के होश आ जाए है

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