आम आदमी के लिए 'नौशाद' सिर्फ़ एक अज़ीम मौसीक़ार थे। लोग उनकी मौसीक़ी और संगीत के दीवाने थे। उन्होंने कम से कम साज़ों का इस्तेमाल करके बहतरीन धुनें तख़लीक़ कीं। गुलूकारों की आवाज़ों का ऎसा इस्तेमाल किया कि वो मक़बूलतरीन गुलूकार बन गए। उन्होंने लोक धुनों का भी ज़रूरत के हिसाब से अच्छा इस्तेमाल किया और लोकसंगीत को भी मक़बूले आम का दरजा दिलाया।
नौशाद साहब की मौसीक़ी से उनकी फ़िलमों से और उनके नग़मों से तो सब वाक़िफ़ हैं लेकिन बहुत कम लोग ये जानते हैं कि वो एक अच्छे शायर भी थे। उन्होंने कम लिखा है लेकिन बहुत ख़ूब लिखा है। कभी-कभी वो मुशायरों में शिरकत भी कर लिया करते थे। क़रीब बीस साल पहले वो इन्दौर में मुनअक़िद एक मुशायरे में शरीक भी हुए थे। आज हम यहाँ उनकी चन्द ग़ज़लें पेश कर रहे हैं।
आबादियों में दश्त का मंज़र भी आएगा
गुज़रोगे शहर से तो मेरा घर भी आएगा
अच्छी नहीं नज़ाकत-ए-एहसास इस क़दर
शीशा अगर बनोगे तो पत्थर भी आएगा
सेराब हो के शाद न हो रेहरवान-ए-शौक़
रस्ते में तश्नगी का समन्दर भी आएगा
दैर-ओ-हरम मे खाक उड़ाते चले चलो
तुम जिसकी जुस्तुजू में हो वो दर भी आएगा
बैठा हूँ कब से कूंचा-एक़ातिल में सरनिगूँ
क़ातिल के हाथ में कभी खंजर भी आएगा
सरशार हो के जा चुके यारान-ए-मयकदा
साक़ी हमारे नाम का साग़र भी आएगा
2. पहले तो डर लगा मुझे खुद अपनी चाप से
फिर रो दिया मैं मिल के गले अपने आप से
थी बात ही कुछ ऐसी कि दीवाना हो गया
दीवाना वरना बनता है कौन अपने आप से
रहता है अब हरीफ़ ही बनकर तमाम उम्र
क्या फ़ायदा है यार फिर एसे मिलाप से
आया इधर ख्याल उधर मेहव हो गया
कहने को था न जाने अभी क्या मैं आप से
हम और लगाएँगे पड़ोसी के घर में आग
भगवान ही बचाए हमें ऎसे पाप से
नौशाद रात कैसी थी वो महफ़िल-ए-तरब
लगती थी दिल पे चोट सी तबले की थाप से