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अनवर शादानी की ग़ज़लें

हमें फॉलो करें अनवर शादानी की ग़ज़लें
, मंगलवार, 17 जून 2008 (17:04 IST)
1.
इज़हार-ए-मोहब्बत पर कहने लगे झुंझलाकर
दीवाने, मोहब्बत के आदाब तो सीखा कर

ग़ुंचे से लिपटती है क्यों बाद-ए-सबा आकर
ये बात ज़रा तू भी तन्हाई में सोचा कर

Aziz AnsariWD
दो दिन की जवानी में इतना न भरोसा कर
चढ़ते हुए सूरज का अंजाम तो देखा कर

इस तरहा कसकते हैं अब तार गरेबाँ के
सीने से लिपट जाए जैसे कोई शर्मा कर

ऎसा न हो तुझको भी दीवाना बना डाले
तन्हाई में खुद आपनी तस्वीर न देखा कर

मिलता है सुकून-ए-दिल मुश्किल से जवानी में
कुछ देर फ़क़ीरों की सोहबत में भी बैठा कर

कुछ अपना भरम बी रख, यूँ तर्क-ए-तअल्लुक़ से
ऎ जान-ए-वफ़ा अपने अनवर को न रुसवा कर

2.
जो ज़ुल्फ़ छू के पलटती हैं उंगलियाँ उसकी
तमाम रात महकती हैं उंगलियाँ उसकी

बड़ा ही सर्द है वो मौसम-ए-बहार मगर
मेरे बदन पे सुलगती हैं उंगलियाँ उसकी

कभी तो छूने की खातिर हज़ार तदबीरें
कभी तो छू के लरज़ती हैं उँगलियाँ उसकी

बड़े अजीब तक़ाज़े हैं आशनाई के
मैं चुप रहूँ तो चटखती हैं उंगलियाँ उसकी

हों जैसे शब के तआक़ुब में चाँद की किरनें
मेरी तरफ़ यूँ लपकती हैं उंगलियाँ उसकी

ये देखना है कि मेरे सलाम की खातिर
कहाँ-कहाँ से सरकती हैं उंगलियाँ उसकी

बहुत हसीन है तहरीर-ए-खत मगर अनवर
मेरी नज़र में चमकती हैं उंगलियाँ उसकी

3.
एक रोटी सही मेहनत से कमा कर देखो
ज़िन्दगी क्या है पसीने में नहा कर देखो

सिर्फ़ अपने लिए राहत की तमन्ना कैसी
दूसरों के लिए तकलीफ़ उठा कर देखो

तुमको मजबूरी का अन्दाज़ा भी हो जाएगा
फूल मेहनत के हथेली पे खिला कर देखो

सुबहा और शाम का संगम नज़र आजाएगा
ज़ुल्फ़ को आरिज़-ए-रोशन पे गिरा कर देखो

सिर्फ़ अपने ही नशेमन को बचाना कैसा
हर नशेमन को तबाही से बचा कर देखो

तुमको हर गाम पे जीने के मज़े आएँगे
खिदमत-ए-ख्ल्क़ में अपने को मिटा कर देखो

कितना दुशवार है इस दौर में जीना अनवर
इक दिया तुम भी हवाओं में जला कर देखो


4.
जागने पर मुझे मजबूर बना देता है
दिल के दरवाज़े पे जब कोई सदा देता है

खूब वो मेरी वफ़ाओं का सिला देता है
मेरे आगे मेरी तस्वीर जला देता है

धूप का पेड़ है वो शख्स सरापा लेकिन
गर्म मौसम में मगर सर्द हवा देता है

ऎ मसीहा तेरे अखलाक़ के सदक़े जाऊँ
मरने वाला तुझे जीने की दुआ देता है

एक उजड़े हुए गुलशन का पुराना मौसम
जब भी मिलता है मुझे ज़ख्म नया देता है

सैकड़ों में किसी मजनूँ, किसी दीवाने को
साहब-ए-नक़्श-ए-क़दम अपना पता देता है

अब दवाओं में असर है न मसीहाई में
बस तेरा नाम मरीज़ों ओ शिफ़ा देता है

कोई दीवाने से ये राज़-ए-मोहब्बत पूछे
क्यों चिराग़ों को सर-ए-शाम बुझा देता है

हुस्न भी हद में हुआ करता है अच्छा 'अनवर'
हद से बढ़ जाए तो मग़रूर बना देता है

5.
रुसवाइयों का मेरी तमाशा न कीजिए
लिल्लाह अपने आप को रुसवा न कीजिए

हर ज़ुल्म पर वफ़ा का तक़ाज़ा न कीजिए
महँगा पड़ेगा आप ये सौदा न कीजिए

हँसिए न आप यूँ मेरे हाल-ए-तबाह पर
तारीक ज़िन्दगी में उजाला न कीजिए

काँटों से रस्म-ओ-राह का गर हौसला न हो
फूलोँ की अपने दिल में तमन्ना न कीजिए

कुछ मुश्किलात-ए-राह-ए-वफ़ा की खबर भी है
चलने का मेर साथ इरादा न कीजिए

मेरी निगाह-ए-शौक़ का जादू भी कम नहीं
आँखों में आँखें डाल के देखा न कीजिए

वारफ़्तगी-ए-शौक़ में 'अनवर' के सामने
जब आ गए हैं आप तो परदा न कीजिए

6.
सब के होठों पे गिला हो ये ज़रूरी तो नहीं
ज़िन्दगी सब से खफ़ा हो ये ज़रूरी तो नहीं

ज़ुल्फ़-ए-शब रंग भी आरिज़ पे बिखर सकती है
चाँद पे काली घटा हो ये ज़रूरी तो नहीं

सिर्फ़ दीवाने को एहसास-ए-वफ़ा लाज़िम है
उनको एहसास-ए-वफ़ा हो ये ज़रूरी तो नहीं

सर से आंचल किसी सूरत भी ढलक सकता है
शोखि-ए-बाद-ए-सबा हो ये ज़रूरी तो नहीं

देखिए ग़ौर से फ़ेहरिस्त वफ़ादारों की
नाम अपना भी लिखा हो ये ज़रूरी तो नहीं

तालिब-ए-दीद का ईमान-ए-नज़र है वरना
कोई परदे में छुपा हो ये ज़रूरी तो नहीं

रंग-ए-खून-ए-दिल-ए-अनवर भी तो हो सकता है
दस्त-ए-नाज़ुक पे हिना हो ये ज़रूरी तो नहीं

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