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बात जो थी गौतम-ओ-मूसा में

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विलास पंडित 'मुसाफिर'

फ़ासले इस कदर हैं रिश्तों में
घर ख़रीदा हो जैसे क़िश्तों में

बाज़ियाँ जीतने से क्या हासिल
एक जज़्बा तो है शि‍क़िस्तों में

तुम कहो गीत या ग़ज़ल लेकिन
कोई आता नहीं नशिस्तों में

ये क्या कम है तेरी पनाह में हूँ
तू भले ही रहे बहिश्तों में

बात जो थी गौतम-ओ-मूसा में
आजकल क्यूँ नहीं फ़रिश्तों में

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