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राहत इन्दौरी

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, शुक्रवार, 13 जून 2008 (14:28 IST)
शे'र का लफ़्ज़ अगर शऊर से मश्क़ है तो राहत इन्दौरी की ग़ज़ल हक़ीक़ी मानों में शायरी कहलाने की मुस्तहक़ है। क्योंकि ये फ़िक्र और जज्बे की आमेज़श से इबारत है। इस पैकार में शायर की फ़िक्र इस दरजा तवाना है कि उसका जज्बे शदीद होने के बावजूद बेइख्तियार नहीं होने पाता।

इसी शऊर ने शायर को हयात और कायनात में बिखरे हुए दुख को समझने और उसको हँसती गाती मसर्रतों में ढाल देने का हौसला भी अता किया है। वो अपनी मिसाली दुनिया की तलाश में निकला तो क़दम क़दम पर उसके आइने चूर भी हुए, वो वक़्ती तौर पर उदास और मायूस भी हुआ

लेकिन उसने उम्मीद का दामन कहीं भी हाथ से जाने नहीं दिया। बहैसियत मजमूई राहत इन्दौरी की ग़ज़लें उसके वजदानी सफ़र की दिलकश दास्तानें हैं जिनमें मानी की इक तेह के नीचे कई रंग झलकते।
- डॉ. तोसीफ़ तबस्सुम

वो इक इक बात पर रोने लगा था
समन्दर आबरू खोने लगा था

लगे रहते थे सब दरवाज़े फिर भी
मैं आँखें खोल कर सोने लगा था

चुराता हूँ अब आँखें आईनों से
खुदा का सामना होने लगा था

वो अब आईने धोता फिर रहा है
उसे चहरों पे शक होने लगा था

मुझे अब देख के हँसती है दुनिया
मैं सब के सामने रोने लगा था
- राहत इन्दौरी

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