1. सिलसिला ज़ख्म ज़ख्म जारी है
ये ज़मी दूर तक हमारी है
मैं बहुत कम किसी से मिलता हूँ
जिससे यारी है उससे यारी है
हम जिसे जी रहे हैं वो लम्हा
हर गुज़िश्ता सदी पे भारी है
मैं तो अब उससे दूर हूँ शायद
जिस इमारत पे संगबारी है
नाव काग़ज़ की छोड़ दी मैंने
अब समन्दर की ज़िम्मेदारी है
फ़लसफ़ा है हयात का मुश्किल
वैसे मज़मून इख्तियारी है
रेत के घर तो बेह गए नज़मी
बारिशों का खुलूस जारी है
2. कब लोगों ने अल्फ़ाज़ के पत्थर नहीं फेंके
वो खत भी मगर मैंने जला कर नहीं फेंके
ठहरे हुए पानी ने इशारा तो किया था
कुछ सोच के खुद मैंने ही पत्थर नहीं फेंके
इक तंज़ है कलियों का तबस्सुम भी मगर क्यों
मैंने तो कभी फूल मसल कर नहीं फेंके
वैसे तो इरादा नहीं तोबा शिकनी का
लेकिन अभी टूटे हुए साग़र नहीं फेंके
क्या बात है उसने मेरी तस्वीर के टुकड़े
घर में ही छुपा रक्खे हैं बाहर नहीं फेंके
दरवाज़ों के शीशे न बदलवाइए नज़मी
लोगों ने अभी हाथ से पत्थर नहीं