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अज़ीज़ अंसारी की ग़ज़लें

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1. जिन दरख़्तों का ज़माने में कहीं साया नहीं
उनपे रेहमत का परिन्दा भी कभी आया नहीं

मैं मुसाफ़िर हूँ, सफ़र करना मुक़द्दर है मेरा
चलते चलते थक गया लेकिन कहीं ठहरा नहीं

तुम भी क़िस्मत आज़मा लो किसने रोका है तुम्हें
हाँ! मगर इस खेल में बाज़ी कोई जीता नहीं

क़द्र खो बैठे तो समझे हम बुज़ुर्गों की ये बात
घर किसी के आना जाना रोज़ का अच्छा नहीं

दिल अगर ज़िन्दा है तो सब मुश्किलें आसान हैं
सब्ज़ पत्ता आँधियों के ज़ोर से टूटा नहीं

मेरे अश्कों ने दिया रुतबा मुझे इंसान का
ग़म से पत्थर हो गया होता अगर रोता नहीं

2. वो कौन है जो वक़्त की बाँहों में नहीं है
हालात-ओ-मुक़द्दर की पनाहों में नहीं है

मंज़िल की तरफ़ बढ़ने से जो रोक दे मुझको
ऐसा कोई पत्थर मेरी राहों में नहीं है

बदले में मिलेगी हमें फ़िरदोस की नेमत
बस! इक यही मक़सद तो गुनाहों में नहीं है

इंसाफ़ जहाँगीर-ए-ज़माना से मिले क्या?
सच कहने की हिम्मत ही गवाहों में नहीं है

दुनिया की हर इक चीज़ निगाहों में है उनकी
इक तू ही अज़ीज़ उनकी निगाहों में नहीं है

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