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इशरत वाहिद

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1.
वैसे तो रोशनी के लिए क्या नहीं किय
लेकिन किसी चिराग़ पे क़ब्ज़ा नहीं किय

किस दिन हमें मिला न पयामे शगुफ़्त्ग
किस रोज़ ख़ुशबुओं ने इशारा नहीं किय

शाख़े गुलाब अपने लिए मसअला नहीं
ये और बात है के इशारा नहीं किय

देखा मगर हिजाबे तक़द्दुस की ओट से
उस चौदहवीं के चाँद को मैला नहीं किय

फिर दोनों अपने-अपने लबों में सिमट ग
यानी इक इत्तेफ़ाक़ को रुसवा नहीं किय

रक्खा है धड़कनों में ऐ जाने वफ़ा तुझ
परछाइयों में भी तेरा चर्चा नहीं किय

तुमने तो अपनी रोशनी ख़ुद में समेट ल
इक पल हमारे दिल में उजाला नहीं किय
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2.
जब तलक रतजगा नहीं होत
क़ुर्ब में ज़ाएक़ा नहीं होत

लम्स एहसास की अमानत ह
जो ज़बाँ से अदा नहीं होत

सिर्फ़ दीदार तक रहूँ मेहदूद
ज़ायक़ा देर पा नहीं होत

हर शिकारी को ये नहीं मालूम
हर परिन्दा नया नहीं होत

अपनी तस्वीरें देखकर सोच
कौन बेहरूपिया नहीं होत

थोड़ी शाइस्तगी ज़रूरी ह
खुल के मिलना बुरा नहीं होत

आमने-सामने रहें तो क्या
आमना-सामना नहीं होत
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