पेशकश : अज़ीज़ अंसारी
1. हर चोट हँस के सेहना सुनेहरा उसूल है
मेरे लिए तो आपका पत्थर भी फूल है
दश्त-ए-तलब में तोहफ़ा-ए-साया लिए हुए
हर सर पे आरज़ूओं का सूखा बबूल है
दिल में दिए जला के अंधेरे में जीना सीख
बुझते हुए चिराग़ का मातम फ़ुज़ूल है
देखें शिकस्त-ओ-फ़तहा है किसके नसीब में
मेरे चिराग़ को तेरी आँधी क़ुबूल है
जब तक मिज़ाज-ए-मौसम-ए-दौराँ बदल न जाए
बरसात की उम्मीद ही रखना फ़ुज़ूल है
कौसर हँसूँ-हँसाऊँ मैं कैसे के इन दिनों
माहौल है उदास तबीयत मलूल है
2. बुझ कर लगी हुई कहीं लग कर बुझी हुई
इक आग है ज़मीं से फ़लक तक लगी हुई
लगता है तुमसे कुछ मेरा रिश्ता ज़रूर है
काँटा मुझे लगा तो तुम्हें क्यों ख़ुशी हुई
कुछ क़ाफ़िए रदीफ़ के अन्दर पिरो दिए
ये शायरी भी यार कोई शायरी हुई
जीना था इक फ़रीज़ा, अदा तो किया मगर
जो ज़िन्दगी जिए वो कोई ज़िन्दगी हुई
पुरसिश नहीं इलाज किसी ज़ख़्म का मगर
तुमने जो हाल पूछ लिया तो ख़ुशी हुई