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कोई व्यवस्था आदर्श नहीं, सबमें सुधार की जरूरत : हृदयनारायण दीक्षित

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विवेक त्रिपाठी

उत्तरप्रदेश विधानसभा के अध्यक्ष हृदयनारायण दीक्षित साहित्यकार, पत्रकार व कुशल राजनीतिज्ञ हैं। उनके जीवन का सफर काफी उतार-चढ़ाव वाला रहा है। संघर्ष भरा लम्बा सफर तय करने के बाद आज वह विधानसभा के सर्वोच्च आसन पर विराजमान हैं। प्रदेश सरकार में संसदीय कार्यमंत्री और पंचायती राज मंत्री रह चुके दीक्षित उन्नाव में भाजपा के जिला अध्यक्ष से पार्टी के प्रदेश उपाध्यक्ष, राष्ट्रीय कार्यसमिति के सदस्य, मुख्य प्रवक्ता और अन्य कई मोर्चों व प्रकोष्ठों में भी अलग-अलग पदों की जिम्मेदारी निभा चुके हैं।


वे राज्य विधानमंडल की प्राक्कलन समिति के सभापति और सार्वजनिक उपक्रम समिति के सभापति भी रह चुके हैं। दीक्षित ने लंबे समय तक अखबार निकालकर भी आम लोगों की समस्याओं को आवाज दी। मध्यप्रदेश सरकार द्वारा गणेश शंकर विद्यार्थी सम्मान, भानुप्रताप शुक्ल पत्रकारिता सम्मान और दीनदयाल उपाध्याय सम्मान जैसे तमाम पुरस्कारों से भी वे नवाजे जा चुके हैं। वैदिक साहित्य और भारतीय संस्कृति का गहन अध्ययन करने वाले दीक्षित की विभिन्न विषयों पर 22 पुस्तकें भी प्रकाशित हो चुकी हैं। वेबदुनिया ने दीक्षित से विभिन्न मुद्दों पर विस्तृत चर्चा की। प्रस्तुत है बातचीत के प्रमुख अंश-

विधानसभा अध्यक्ष के पद को कितना चुनौतीपूर्ण मानते हैं?
हर दायित्व में चुनौती होती है। नए दायित्व भिन्न-भिन्न प्रकार के होते हैं। हर दायित्व में अपने कार्य का ढंग से निर्वहन करना जरूरी है। मैं जिला इकाई में था तो वहां का दायित्व भिन्न था, जब मंत्री बना तो वहां के कार्य अलग थे और अब विधानसभा अध्यक्ष होने पर भी दायित्व बदल गया है। विधानसभा निष्पक्ष होकर काम करती है। सत्तापक्ष और विपक्ष के बीच सेतु का काम करती है। विपक्षियों का विश्वास जीतना भी बड़ी चुनौती होती है। साथ ही संवैधानिक दायित्वों का भी निर्वहन करना होता है। जीवन को प्रामाणिक बनाना बहुत ही अनिवार्य है।

राजनीतिक सफर के उतार-चढ़ाव के बारे में बताएं?
कोई व्यक्ति चाहे वह लेखक हो, पत्रकार हो अथवा किसी अन्य व्यवसाय में हो, सब अपने समय व समाज की परिस्थितियों के उत्पाद होते हैं। जैसा समय होता है, समाज होता है; उसी आधार पर संघर्ष करते और लड़ते हुए, बीच में कभी पराजित होते हुए आगे बढ़ा जाता है। वह कभी लंबी यात्रा करते हैं। मुझे सभी वरिष्ठों, हर वर्गों और परिजनों का ठीक-ठीक सहयोग मिला। अध्ययन और सामाजिक परिवर्तन, राजनीतिक दल के माध्यम से मैंने अपनी यात्रा जारी रखी है। कोई व्यवस्था आदर्श नहीं होती है। उसमें सुधार की सदैव जरूरत होती है।

क्या नए सदस्यों को कोई प्रशिक्षण दिलाने की योजना है?
विधानसभा की कार्यवाही का चलना अपने आप में एक प्रशिक्षण हैं। पिछला बजट सत्र हुआ। राज्यपाल के अभिभाषण चर्चा में हमने  नए विधायकों को ज्यादा महत्व दिया। शायद ही कोई छूटा हो। सबको अवसर प्रदान किए गए हैं। इससे पहले हमने प्रशिक्षण कार्यक्रम रखा था। जिसमें सभी दलों के पुराने नेताओं को भी आमंत्रित किया गया था। अलग-अलग सत्र चलाया गया था। भिन्न-भिन्न विषयों की जानकारी दी गई। प्रश्न-उत्तर का तो एक अलग से सत्र चलाया गया था। अब डेढ़ वर्ष हो रहे हैं। विधायकों को नया कहना ठीक नहीं होगा। अब कोई प्रशिक्षण की अवश्यकता भी नहीं है। आगे देखा जाएगा।

सदन में आजकल विधायकों की वेल में जाने की प्रवृत्ति बढ़ रही है। इसे रोकने के लिए क्या उपाय करेंगे? इसके आप विरोधी भी रहे हैं। विधानसभा की कार्यवाही का जीवंत प्रसारण होता है। उनके मतदाता उनके आचरण को देखते हैं। जब अपने क्षेत्र जाते होंगे तो उनके क्षेत्र की जनता उनके इस आचरण के बारे में जरूर पूछती होगी। धीरे-धीरे यह प्रवृत्ति खत्म होगी।

विपक्षियों के सवालों पर कई बार मंत्री गोलमोल जवाब देते हैं, ऐसा क्यों?
ऐसा नहीं है। भटकाने का तो विषय ही नहीं उठता क्योंकि मंत्री अपने मन से कोई उत्तर नहीं देते हैं। एक प्रक्रिया होती है उत्तर देने की। वे बहुत पहले ही अपने प्रश्न लिखकर जमा कर देते हैं। अधिकारी उसका उत्तर तैयार करते हैं। विधानसभा सचिवालय में प्रश्न लिखित रूप से आता है। उस विषय के अधिकारी उसका उत्तर तैयार करते हैं। गलत उत्तर देने में अधिकारियों की जवाबदेही होती है।

कभी-कभी कुछ लोग अपने व्यक्तिगत प्रश्नों को ज्यादा तरजीह देते हैं। क्या यह सही है?
सदन में ऐसे प्रश्नों को हतोत्साहित किया जाता है। अटलबिहारी अब नहीं हैं। उन्होंने सार्वजनिक सभा और सदन के भीतर बातचीत का स्तर ऊंचा रखा था। लोगों से यह स्तर बनाए रखने की गुजारिश भी की।

यह स्तर कैसे बनाया जा सकता है?
प्रत्येक समाजिक और राजनीतिक कार्यकर्ता के अपने रोल मॉडल होते हैं। अटलजी भी रोल मॉडल हो सकते हैं। अटलजी ने सदन के भीतर कभी आक्रामक शब्दों का प्रयोग नहीं किया। सार्वजनिक जीवन में भी नए आदर्श प्राप्त किए जा सकते हैं। कामकाज में व्यवहारशील बनकर खुद को प्रामाणिक कार्यकर्ता बनाया जा सकता है। विधायक या अन्य लोग भी में भारतीय राष्ट्रवाद को ध्यान में रखकर अपने कामकाज का ताना-बाना बुन सकते हैं।

पूर्व विधानसभा अध्यक्षों के कोई अच्छे कार्य जो नजीर के रूप में प्रस्तुत किए जा सकते हैं?
विधानसभा अध्यक्ष द्वारा समय-समय में दिए गए निर्णयों का संकलन किया जाता है। अध्यक्षों के निर्णयों को नियमावली माना जाता है। मैं यह तो नहीं कह सकता हूं कि मैंने कोई क्रांति की है। हां, पूर्व अध्यक्षों के प्रति आदर का भाव रखते हुए उनके कार्यों को आगे बढ़ा रहा हूं। उनकी चुनौतियां अलग थीं। इस समय की चुनौती अलग है।

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