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जवां हैं उमंगें, जवां हैं हम

- दिल्ली से विनोद अग्निहोत्री/लखनऊ से योगेश मिश्र

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देश का सबसे बड़ा राज्य होने के नाते केंद्र की राजनीति और सत्ता को सीधे तौर पर उत्तर प्रदेश प्रभावित करता है अतः विभिन्न पार्टियां इस पर ध्यान केंद्रित कर रही हैं। इन चुनावों में सभी पार्टियों में युवा नेतृत्व को तरजीह भी मिल रही है। यूं कुछ पार्टियां चाहकर भी तेजस्वी युवा नेता नहीं ढूंढ पा रही हैं। उनका नारा तो यही होने वाला है कि क्या हुआ यदि हम जवां नहीं हैं, हमारी उमंगें तो जवां हैं! पर कांग्रेस अपने युवा नेताओं की बड़ी तादाद और नेतृत्व में राहुल गांधी और उनके सहयोग में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाली प्रियंका गांधी को लेकर यह नारा तो देगी ही कि 'जवां हैं उमंगें और जवां हैं हम, देखें किसमें कितना है दम!'

उत्तर प्रदेश की सियासी बाजी जीतने के लिए कांग्रेस नेतृत्व ने युवाओं को अपना ट्रंप कार्ड बनाने की पूरी तैयारी कर ली है। राहुल गांधी के हाथों में पहले से ही चुनाव अभियान की कमान है और वही पार्टी के नंबर एक स्टार प्रचारक भी हैं लेकिन कांग्रेसी रणनीतिकार कोई मौका चूकना नहीं चाहते हैं इसलिए उन्होंने प्रियंका गांधी को भी चुनाव प्रचार में उतारने का फैसला किया है। चुनाव प्रचार में प्रियंका की मौजूदगी को कांग्रेस उत्तर प्रदेश के चुनावी महाभारत में अपना ब्रह्मास्त्र मानकर चल रही है।

कांग्रेसी रणनीतिकारों का दावा है कि राहुल के जवाब में जहां बसपा और भाजपा के पास कोई युवा चेहरा नहीं है और सपा ने भले ही अखिलेश यादव को उतारा हो लेकिन प्रदेश के युवा ही नहीं बल्कि हर उम्र के मतदाताओं का भरोसा राहुल के प्रति बढ़ता जा रहा है। राहुल-प्रियंका फोरम के महासचिव रूपेश मिश्रा कहते हैं, 'जब राहुल के साथ प्रियंका भी मैदान में होंगी तो उसके सियासी तूफान में विरोधियों के तंबू उखड़ जाएंगे।'

इसे राहुल-प्रियंका के कांग्रेसी कार्ड के साथ-साथ देश में युवा पीढ़ी के बढ़ते उभार का दबाव भी माना जा सकता है कि जहां कभी राजनीति में युवा कंधों पर बुजुर्ग नेता सवार होते थे। छात्र संघों से लेकर विधानसभा और लोकसभा तक जो भी युवा नेता होते थे उनकी सियासी डोर किसी बुजुर्ग नेता के हाथों में होती थी लेकिन यह पहली मर्तबा है कि उत्तर प्रदेश की सियासत का भविष्य 'यंगिस्तान' के भरोसे है। न केवल युवा वोटों की खासी तादाद है बल्कि जिन्हें वोट देना है उनमें भी एक-तिहाई से ज्यादा युवा नेता हैं इसीलिए उत्तर प्रदेश के सियासी महाभारत में कांग्रेस-रालोद गठबंधन और समाजवादी पार्टी ने युवा सेनापतियों के हाथों में ही अपनी-अपनी चुनावी सेनाओं की कमान सौंप दी है।

जहां कांग्रेस की पूरी चुनावी कमान राहुल गांधी के हाथ में है वहीं अब उनकी मदद के लिए बहन प्रियंका गांधी वाडरा भी पार्टी के स्टार प्रचारकों की सूची में प्रमुखता से शामिल हो गई हैं। कांग्रेसी कार्यकर्ताओं का दावा है कि राहुल ने कांग्रेस के पक्ष में उत्तर प्रदेश में जो हवा बनाई है, प्रियंका के प्रचार में उतरने पर वह आंधी बन जाएगी इसलिए कोशिश हो रही है कि पहली बार प्रियंका रायबरेली, अमेठी और सुल्तानपुर की अपनी तय सीमाओं से बाहर निकलकर प्रदेश के अन्य हिस्सों में भी चुनाव प्रचार करें।

कांग्रेसी रणनीतिकार इस पर गहन मंथन में जुटे हैं कि प्रियंका को सिर्फ रायबरेली, अमेठी और सुल्तानपुर तक रखा जाए या उन्हें पूर्वांचल, मध्य उत्तर प्रदेश, बुंदेलखंड, रुहेलखंड और पश्चिम के इलाकों में भी भेजा जाए। हालांकि प्रियंका के चुनाव प्रचार के पहले चरण की तैयारी पूरी हो चुकी है।

कांग्रेस ही नहीं, तकरीबन हर बड़े राजनीतिक दल ने अपने दल की कमान दूसरी पीढ़ी के नेता को सौंपने के लिए उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव को प्रयोगशाला बनाया है। यह जानते हुए भी युवा न केवल विचारधारा के फंदे में फंसे हैं बल्कि सियासी पार्टियों के फंदे से भी उन्होंने अपने को बाहर कर रखा है। वे सवालों, मुद्‌दों और समस्याओं को 'फेस वैल्यू' पर लेते हैं। अपने नेताओं का टेस्ट युवा 'इशू वाइज' करते हैं। मुद्‌दों, सवालों और समस्याओं पर 'रिस्पांड' करने का उनका तरीका भी कुछ इसी तरह होता है।

यही वजह है कि कांग्रेस के राहुल गांधी युवा कार्ड के जवाब में समाजवादी पार्टी के पुरोधा पुरुष मुलायम सिंह यादव ने भी अपने बेटे अखिलेश यादव को कमान देने की शुरुआत कर दी है। अखिलेश के कहने पर ही टिकटों का बंटवारा और रद्दोबदल ही नहीं बल्कि डी.पी. यादव जैसे मुलायम के पुराने शागिर्द नेता के लिए सपा के दरवाजे भी बंद किए गए और दिग्गज समाजवादी नेता मोहन सिंह को भी अपनी बयानबाजी की कीमत चुकानी पड़ी। अखिलेश की साइकिल यात्राओं ने सपा के यादव जनाधार में नई जान फूंक दी है और समाजवादी पार्टी को उम्मीद है कि अखिलेश का जादू सपा मतदाताओं के सिर चढ़कर बोलेगा।

यही क्यों, रालोद अध्यक्ष अजित सिंह ने भी अपने बेटे जयंत चौधरी की मार्फत राष्ट्रीय लोकदल की 'कॉस्मेटिक सर्जरी' शुरू की है। काफी समय तक रालोद में अजित सिंह के बाद उनकी विश्वस्त रही अनुराधा चौधरी और बेटे जयंत के बीच नंबर दो की लड़ाई चलती रही। पार्टी में चले इस सत्ता संघर्ष की वजह से ही त्रिलोक त्यागी और जगत सिंह जैसे चरण सिंह के जमाने के वफादार नेताओं को पार्टी से बाहर जाना पड़ा।

इसे रालोद पर राहुल और अखिलेश प्रभाव माना जाए कि सत्ता संतुलन की इस तराजू में अजित सिंह ने अपना वजन अपने बेटे जयंत के पलड़े में रखकर न सिर्फ कांग्रेस से गठबंधन किया बल्कि जयंत को रालोद का युवा चेहरा भी बना दिया। जयंत के हाथों में कमान आने के बाद अनुराधा पाला बदलकर सपा में चली गईं। अब पश्चिम उत्तर प्रदेश में राहुल और जयंत की जोड़ी कांग्रेस-रालोद गठबंधन की अगुआई करेगी। दोनों दलों को उम्मीद है कि युवा नेताओं की यह जोड़ी पश्चिम की करीब 135 विधानसभा सीटों पर दूसरों पर भारी पड़ेगी।

यही नहीं, जुमा-जुमा दो साल से अस्तित्व में आई पीस पार्टी के अध्यक्ष डॉ. अयूब ने भी अपने बेटे इरफान को सियासत की डगर पकड़ाकर युवा मतदाताओं के सामने अपनी पार्टी का भी युवा चेहरा पेश किया है। एक बिरादरी तक ही अपनी पकड़ बनाए रखने वाले अपना दल के अध्यक्ष सोने लाल पटेल की मौत के बाद उनकी बेटी अनुप्रिया पटेल ने कमान संभालकर अपने दल को यंगिस्तान एक्सप्रेस में बिठाने की दशा में परंपरागत और हाईटेक दोनों नुस्खे आजमाने शुरू कर दिए हैं।

उत्तर प्रदेश में युवा राजनीति की शुरुआत कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी ने कुछ उसी तरह शुरू की है जिस तरह कभी उनके पिता और पूर्व प्रधानमंत्री स्व. राजीव गांधी ने देश में युवाओं को राजनीति के लिए न केवल प्रेरित किया था बल्कि एक बड़ा मुकाम भी दिया था। राहुल ने युवाओं को राजनीति की डगर पर लाने और युवा मतदाताओं को भविष्य लिखने के लिए प्रेरित करने की शुरुआत बीते विधानसभा में की थी तब उन्होंने पूरे प्रदेश में रोड शो किए थे।

प्रबंधकीय भाषा में रोड शो शब्द किसी उत्पाद की 'लॉचिंग' से जुड़ा है। बावजूद इसके कांग्रेसियों ने राहुल गांधी का रोड शो कराया। हालांकि कांग्रेस के वरिष्ठ नेता रोड शो शब्द के प्रयोग से परहेज करते हैं लेकिन मीडिया में राहुल का जनसंपर्क अभियान इसी जुमले के रूप में प्रचलित है। राहुल युवा मतदाताओं को संदेश देने के साथ-साथ राजनीति में आने की जरूरत बताते रहे पर राहुल की यह कोशिश कोई रंग नहीं ला पाई। 2002 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को सिर्फ नौ फीसदी वोट मिले जो वर्ष 1996 के चुनाव से महज 0.65 फीसदी ज्यादा थे। उसे 25 सीटें मिलीं।

लेकिन 2007 के जिस चुनाव में राहुल गांधी ने रोड शो किया उसमें भी कांग्रेस का वोट 8.5 फीसदी ही रहा। यही नहीं, 2002 के चुनाव की तुलना में 2007 में उनकी पार्टी के तीन विधायक भी कम हो गए पर राहुल ने हिम्मत नहीं हारी। उन्होंने नया रास्ता चुना और युवा कांग्रेस तथा भारतीय राष्ट्रीय छात्र संगठन, जिसे कांग्रेस की छात्र शाखा कहते हैं, के महत्वपूर्ण पदों पर नेताओं के जो सिफारिशी बैठे थे उन्हें बेदखल कर आंतरिक लोकतंत्र बहाली का अभियान चलाया।

पंजाब से शुरू हुआ यह अभियान देश भर में चला। उत्तर प्रदेश में राहुल के इस अभियान को पलीता लगाने की हिंसक कोशिशें भी हुईं पर वे हारे नहीं। उन्होंने चुनाव की मार्फत कांग्रेके इन दोनों आनुषंगिक संगठनों के महत्वपूर्ण पदों पर युवा नेताओं की ताजपोशी कराई।

बीते दिनों टिकट बंटवारे को लेकर उपजे असंतोष को शांत कराने के लिए पार्टी के मॉल एवेन्यू स्थित प्रदेश कार्यालय पर उम्मीदवारों और संगठन को लोगों से मुखातिब होते हुए राहुल गांधी ने साफ कहा था कि जब उन्होंने पंजाब में चुनाव कराने की शुरुआत की तो उनका बड़ा उपहास हुआ। हालांकि उपहास उड़ाने वालों को उन्होंने यह भी जवाब दिया था कि वह इसे करके दिखाएंगे।

राहुल गांधी कुछ इसी तर्ज पर अब उत्तर प्रदेश में भी राजनीति की नीति और रीति बदलने पर आमदा हैं। इसके लिए उनकी रणनीति न केवल दिलचस्प है बल्कि रहस्यमयी भी है। परंपरागत राजनीतिक चश्मे से उसका आकलन मुमकिन नहीं है। अपने विरोधियों को वह चौंकाते भी हैं, छकाते भी हैं। वे अपने और जनता के बीच पार्टी के किसी नेता या कार्यकर्ता को बिचौलिया बनने का मौका नहीं देते।

यही वजह है कि उनके उत्तर प्रदेश के सभी दौरों में किसी भी बड़े नेता को ऐसी अहमियत हासिल नहीं हो पाती कि राहुल के जाने के बाद वह कार्यकर्ताओं और जनता को यह उम्मीद जता सकें कि राहुल गांधी उसके कहे को कर दिखाएंगे। जनता से संवाद करने की कोशिश में वह सुरक्षा घेरा भी तोड़ते हैं। इसकी शिकायत कई बार उत्तर प्रदेश सरकार केंद्र से कर चुकी है। उनके भाषणों में युवाओं के लिए चुनौती भी होती है, सपने भी और उम्मीद भी।

युवा राहुल के एजेंडे का सबसे अहम पहलू हैं। यही वजह है कि अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के छात्रों को लेकर मानव संसाधन विकास मंत्री कपिल सिब्बल के पास छात्रसंघ बहाली के लिए जा धमके थे। गोरखपुर विश्वविद्यालय में भी युवाओं के साथ उन्होंने अलग से मुलाकात की थी। गोरखपुर से मुंबई तक की रेलयात्रा हो या भट्‌टा पारसौल में उनका पहुंचना अथवा किसी भी दलित के यहां रात्रि प्रवास के लिए पहुंचने की उनकी योजनाएं, इसकी जानकारी कांग्रेस नेताओं के लिए भी मुश्किल होती है। यह जरूर है कि उनके पास अपना फीडबैक सिस्टम है।

यह सिस्टम राहुल के करीबी कनिष्क सिंह की मार्फत राहुल तक अपनी बात पहुंचाता है। हालांकि इन दिनों राहुल के फीडबैक सिस्टम की कमान मुलायम सिंह के हमकदम रहे नेताओं के हाथ है। इनमें मोहन प्रकाश, राज बब्बर, रशीद मसूद और बेनी प्रसाद वर्मा शामिल हैं। हालांकि राज बब्बर उम्र के लिहाज से अब युवा पीढ़ी की दहलीज पार कर चुके हैं लेकिन राहुल जानते हैं कि राज का सियासी सफर युवा राजनीति से ही शुरू हुआ था इसलिए उन्हें और कभी छात्र राजनीति के शिखर नेता रहे मोहन प्रकाश को युवा पीढ़ी की नब्ज की बेहतर जानकारी है। इसलिए राहुल इन दोनों पूर्व समाजवादियों से बराबर मशविरा करते रहते हैं।

उत्तर प्रदेश में राहुल की कोर कमेटी में केंद्रीय परिवहन राज्यमंत्री जितिन प्रसाद तथा पेट्रोलियम मंत्री आर.पी.एन. सिंह का नाम शुमार होता है। दिग्विजय सिंह भी राहुल की इसी कोर कमेटी के अहम किरदार हैं। चुनाव से पहले राहुल ने उत्तर प्रदेश के हर इलाके के युवाओं से सीधी मुलाकात का सिलसिला भी शुरू किया और इससे उन्हें प्रदेश की जमीनी हकीकत की खासी जानकारी मिली। पार्टी टिकटों के बंटवारे में भी राहुल ने युवा चेहरों को ज्यादा तरजीह दिलाने की पूरी कोशिश की है।

राहुल अपनी योजनाएं और रणनीति खुद बनाते हैं। इसमें उनके सबसे भरोसेमंद सहयोगी उनकी बहन प्रियंका गांधी होती हैं। यही वजह है कि राहुल ने जब मिशन उत्तर प्रदेश को अपने हाथों में लिया और इन दिनों उसी पर काम करते हुए प्रदेश में तब तक बने रहने की मुनादी पीट रहे हैं जब तक सूबे की शक्ल नहीं बदल देंगे। तब प्रियंका के भी उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में स्टार प्रचारक के रूप में उतरने का जिक्र तेज हो गया है। बीते लोकसभा चुनाव में प्रियंका गांधी सिर्फ रायबरेली में कांग्रेस के मंच पर दिखी थीं। अब तक वह रायबरेली और अमेठी को छोड़ चुनाव के मद्देनजर कहीं नहीं गई हैं।

प्रियंका में तमाम लोगों को स्व. इंदिरा गांधी की छवि दिखती है। अमेठी और रायबरेली में भी यहां के सांसदों से कम प्रभाव प्रियंका का नहीं है। जब भी वह इन दोनों इलाकों में होती हैं तो उनसे मिलने वालों का रैला उमड़ पड़ता है। राहुल गांधी को अमेठी से मैदान में उतारने के ठीक पहले उनकी उंगली पकड़कर प्रियंका ही उन्हें लाई थीं। अमेठी में महिलाओं और लड़कियों की जो योजनाएं चल रही हैं उनकी मॉनिटरिंग वह खुद करती हैं।

कांग्रेस और कांग्रेसी कार्यकर्ताओं में लंबे समय तक यह बहस चलती रही कि राहुल और प्रियंका में किसे सक्रिय राजनीति में आना चाहिए लेकिन भाई-बहन की रजामंदी से राहुल को आगे लाने का फैसला हुआ और प्रियंका अपने भाई की हर मदद के लिए हमेशा तैयार रहती हैं।

वह जान रही हैं कि उत्तर प्रदेश चुनाव राहुल के राजनीतिक भविष्य के लिए अहम पड़ाव और चुनौती हैं इसलिए वह राहुल की कामयाबी के लिए हर तरह की मदद करने को तैयार हैं। न सिर्फ प्रचार बल्कि पर्दे के पीछे रहते हुए प्रियंका उत्तर प्रदेश के हालात का पूरा फीडबैक लेती हैं और उसकी जानकारी मां सोनिया गांधी और भाई राहुल को देती हैं। टिकटों के बंटवारे से लेकर चुनाव अभियान तक में राहुल ने उनसे सलाह ली है।

बीते विधानसभा चुनाव से अब तक राहुल ने न केवल स्टाइल बदली है बल्कि अब वे लोगों के बीच ऐसे सवाल उठाने लगे हैं जिससे मतदाता नियति पर भरोसा करना छोड़कर भविष्य बदलने के लिए जद्‌दोजहद करने को उठ खड़ा हो। राहुल जानते हैं कि जाति और धर्म में बंटी उत्तर प्रदेश की राजनीति में जगह बनाने के लिए इन खांचों को तोड़ने के साथ आंखों में भविष्य के सुनहरे सपने उगाने होंगे। नए नेता की तरह वह सिर्फ ये सपने नहीं बो रहे हैं बल्कि उत्तर प्रदेश में कांग्रेस सरकारों के अतीत से उन्हें जोड़ते हुए यह पुख्ता भी कर रहे हैं कि उनकी नीति और नियति में ईमानदारी है।

राहुल ने तकरीबन हर विधानसभा तक अपनी पहुंच बनाने का खाका तैयार किया है। दिक्कत सिर्फ यह है कि उनके मंत्री, सांसद और विधायक सिर्फ राहुल की रैली और आयोजन में अपनी उपस्थिति दिखाकर इतिश्री कर लेते हैं। यह राहुल की मेहनत का ही नतीजा है कि उत्तर प्रदेश की हर विधानसभा सीट पर कांग्रेस के पास उम्मीदवार हैं। उनमें जमानत जब्त कराने वाले उम्मीदवार कहीं नहीं हैं।

इस बार की उत्तर प्रदेश की मतदाता सूची बताती है कि 18 से 19 वर्ष के मतदाताओं की तादाद 52.55 लाख है जबकि 20 से 29 वर्ष के मतदाताओं में 38,17,050 महिलाएं और 40,02,176 पुरुष हैं। 39 वर्ष से कम आयु वाले मतदाताओं को जोड़ें तो यह आंकड़ा 4.73 करोड़ जा बैठता है। इसी के मद्‌देनजर सपा सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव ने भी अपनी पार्टी की कमान भाई शिवपाल सिंह यादव अथवा राम गोपाल यादव को देने की जगह अपने बेटे और सांसद अखिलेश यादव को देनी उचित समझा।

बीते दो सालों से अखिलेश ने लोहिया वाहिनी, समाजवादी युवजन सभा और समाजवादी छात्रसभा के नौजवानों के साथ मिलकर न केवल सड़क पर लड़ाई लड़ी बल्कि गिरफ्तारी भी दी। अखिलेश ने भी राहुल की ही तरह सूबे के हर विधानसभा क्षेत्र में पहुंचने के लिए समाजवादी क्रांतिरथ यात्रा का सहारा लिया।

उनके भी इस अभियान को खासा समर्थन मिल रहा है। वे भी बूढ़े नेताओं की तरह सिर्फ आश्वासन नहीं बांट रहे हैं। जाति और धर्म की सियासत से परहेज करते हुए उम्मीदों की नई फसल की मार्फत साइकिल की रफ्तार तेज करने की कोशिश में हैं। हालांकि अखिलेश के पास युवाओं की कोर कमेटी नहीं दिखती है। बावजूद इसके सिर्फ समाजवादी ही नहीं, छात्र राजनीति से सियासत की डगर पकड़ने वाले नेताओं को उन्होंने अपने इर्द-गिर्द रायमशविरे के लिए जगह दी है।

बाहुबली विधायक डी.पी. यादव को बसपा से सपा में शामिल कराने के सवाल पर अखिलेश के 'स्टैंड' ने न केवल उनका कद बढ़ाया है बल्कि यह भी साबित किया है कि जातिवाद और अपराधियों से परहेज करने की डगर पर चलने को सपा तैयार खड़ी है।

इसी मुद्‌दे पर सांसद मोहन सिंह को प्रवक्ता पद से हटाया जाना भी यह बयां करता है कि अखिलेश पार्टी के सिर्फ 'कॉस्मेटिक' अध्यक्ष नहीं हैं। इस बार टिकट बंटवारे में भी अखिलेश यादव की ही चली। अखिलेश की कोर कमेटी में आने वाले नौजवानों में इन दिनों अयोध्या से उम्मीदवार बनाए गए पवन पांडेय, लखनऊ विश्वविद्यालय छात्रसंघ के नेता रहे धनंजय उपाध्याय, दीपक रंजन, संजय लाठर, सुनील सिंह, नफीस अहमद, डॉ. निर्भय पटेल, नइमुल हसन का नाम उन लोगों में शुमार है जिनकी बातें अखिलेश यादव कान देकर सुनते हैं। हालांकि इन दिनों उन्होंने अपनी टीम को कुछ और हाईटेक करने के लिए आईआईएम के एसोसिएट प्रोफेसर रहे आईएएस अफसर जयशंकर मिश्र के बेटे अभिषेक मिश्र और पूर्व आईएएस अफसर ए.पी. सिंह की बेटी जूही सिंह को युवा बिग्रेड का हिस्सा बनाया है।

जूही लखनऊ पूर्व सीट पर सपा की उम्मीदवार भी हैं। अखिलेश ने अब तक तीन सौ विधानसभा क्षेत्रों का दौरा पूरा कर लिया है। वे अपनी जनसभाओं में सपा पर लगने वाले सारे आरोपों का सिलसिलेवार जवाब देते हैं। अल्पसंख्यक आरक्षण और महंगाई के मुद्‌दे पर कांग्रेस को निशाने पर लेते हैं पर उनके आक्रमण का निशाना बसपा ही होती है। युवजन सभा के राष्ट्रीय सचिव धनंजय उपाध्याय बताते हैं कि अखिलेश साफ-सुथरी बात करने में विश्वास रखते हैं। झूठे वादे नहीं करते हैं। उनकी सोच सकारात्मक है।

अपने पिता की तरह वे रिश्तों की तासीर समझते हैं। यही वजह है कि रास्ते में मिलने पर अमर सिंह के पैर छूने से भी वह गुरेज नहीं करते। अखिलेश ने खुद को भी पार्टी कार्यकर्ताओं और नेताओं की उम्मीद पर कसने का मौका दिया है। वे राजनीति में गलतियों को सुधारने को प्रतिष्ठा से नहीं जोड़ते हैं। यही वजह है कि सपा को कई बार अपने उम्मीदवार बदलने के फैसले लेने पड़े । वे हर फैसले से कुछ न कुछ सीखने की कोशिश करते हैं । पार्टी को उन्होंने हाईटेक बनाने की दिशा में खासा काम किया है ।

राष्ट्रीय लोकदल के अध्यक्ष अजित सिंह ने भी जब जयंत चौधरी को बीते लोकसभा चुनाव में उतारा था तो उन्हें उम्मीद नहीं रही होगी कि जयंत इतनी जल्दी सियासत की रपटीली राहों पर दौड़ने लगेंगे । धनगढ़ समाज पर हुए पुलिसिया उत्पीड़न के सवाल को लेकर सियासत में उतरे जयंत की नजर सिर्फ लोकसभा तक ही सीमित नहीं रही । उन्होंने जिला पंचायत की 30 में से 19 सीटों पर रालोद का परचम लहरा कर बताया कि वे दूर की नजर रखते हैं। जयंत बोलते समय अपने दादा चौधरी चरण सिंह की स्टाइल में एक हाथ मोड़कर मुट्‌ठी भींच लेते हैं । अपने भाषणों का तेवर हमेशा 'इमोशनल' रखते हैं ।

कभी पार्टी में नंबर दो मानी जाने वाली अनुराधा चौधरी का रालोद से रुखसत होनापार्टी में न केवल जयंत के सियासी वजन को दर्शाता है बल्कि यह भी बताता है कि जयंत पार्टी में किसी की भी हैसियत 'छाया अध्यक्ष' की नहीं बनने देना चाहते । विधानसभा चुनाव में तैयारी, तेजी और स्टार प्रचारकों के लिहाज से भाजपा सबसे पीछे है । अपने फायर ब्रांड नेता योगी आदित्यनाथ और वरुण गांधी को भी पार्टी कोई अहमियत नहीं दे पाई है ।

गांधी-नेहरू परिवार के उत्तराधिकारी वरुण गांधी ने बीते लोकसभा चुनाव में अपनी किस्मत अपनी मां की पारंपरिक सीट पीलीभीत से आजमाई । पर चुनाव में उतरते ही भाषणों की मार्फत उग्र हिंदूवाद का कुछ ऐसा चोला उन्होंने ओढ़ा कि न केवल जेल जाना पड़ा बल्कि भाजपा भी आगा-पीछा करती नजर आई। उसी समय से वरुण ने खुद को योगी आदित्यनाथ, विनय कटियार, प्रवीण भाई तोगड़िया सरीखे नेताओं की कतार में खड़ा कर लिया । यह बात दीगर है कि हालिया विधानसभा चुनाव में उन्होंने अपने इलाकों में संघ और भाजपा किसी की भी नहीं चलने दी । वे भाजपा के कम विहिप के अधिक निकट नजर आते हैं ।

हालांकि भारतीय जनता पार्टी के समानांतर उन्होंने अपने समर्थकों की बड़ी फौज खड़ी करनी शुरू कर दी है जो सीधे उन्हें मुख्यमंत्री का दावेदार बताने लगे हैं । इसके चलते इस कोटि में शुमार नेताओं ने उनके कद को 'कट-टू-साइज' कर दिया है । वैसे संघ का एक खेमा वरुण को उत्तर प्रदेश में भाजपा के मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार प्रोजेक्ट करने के पक्ष में भी था लेकिन भाजपा नेतृत्व ने इस विचार को सिरे नहीं चढ़ने दिया क्योंकि इससे भाजपा के दिग्गज नेताओं को न सिर्फ पार्टी के बल्कि अपने राजनीतिक भविष्य पर भी खतरा नजर आने लगा था।

कभी राम मंदिर आंदोलन के नायक रहे पूर्व भाजपा नेता कल्याण सिंह ने भी अपनी पार्टी की कमान बेटे राजवीर सिंह उर्फ राजू भैया को देकर यंगिस्तान को कमान पर अमल कर दिखाया है । कल्याण राष्ट्रीय जनक्रांति पार्टी के संरक्षक बन बैठे हैं। हालांकि कल्याण सिंह ने राम मंदिर मुद्‌दा इतनी बार पकड़ा और छोड़ा कि हिंदुत्व उनके एजेंडे से दूर चला गया है ।

भाजपा ने उनके स्वर्णिम कार्यकाल को इस कदर ठंडे बस्ते में डाला है कि अपने मुख्यमंत्रित्व काल में किए गए काम की उपलब्धियां भी वह अपने बेटे के खाते में दर्ज नहीं करा सकते । कमान भले ही राजवीर के हाथ हो पर पार्टी में उनके स्वतंत्र अस्तित्व को लेकर बहस जारी है । उनके पास बिरादरी की सियासत के अलावा कोई रास्ता नहीं है । हालांकि जिस मुलायम सिंह के साथ वे मंत्री रहे हैं उनसे इस कदर राहें जुदा हुईं कि अपने उस कार्यकाल की उपलब्धियां बयां कर जनता को मुलायम-कल्याण रिश्तों की पारी याद दिलाने से परहेज करना उनके लिए ज्यादा महत्वपूर्ण हो गया है।

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