राहुल के सारथी
- नई दिल्ली से विनोद अग्निहोत्री
राहुल गांधी ने महाभारत के अर्जुन की जीत में श्रीकृष्ण के सारथी रूप की भूमिका भलीभांति समझी है, लेकिन राहुल 'श्रीकृष्ण' कहां से लाएं ! इसलिए उत्तर प्रदेश के 'चुनावी महाभारत' में 'कांग्रेस के अर्जुन' ने जीत के लिए अपनी जो टीम बनाई है, उसमें एक नहीं, कई सारथी रखे हैं ताकि वे मिलकर एक मजबूत सारथी का बल पैदा कर सकें। भारत के सबसे बड़े प्रदेश का आगामी चुनाव कांग्रेस और राहुल गांधी की भावी राजनीति की दिशा भी तय करेगा, ऐसा राजनीति के दिग्गज मानते हैं।
वर्ष 2007 में हुए राज्य के पिछले विधानसभा चुनावों में और पिछले साल हुए बिहार विधानसभा चुनावों में राहुल गांधी का करिश्मा नहीं दिखा। ऐसे में उत्तर प्रदेश का आगामी चुनाव राहुल के लिए बड़ा राजनीतिक जोखिम साबित होने वाला है। यहां मुकाबला बसपा सुप्रीमो मायावती, सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव और भाजपा के दिग्गज नेताओं से है। जाहिर है, राहुल की संभावनापूर्ण छवि के साथ-साथ उनके सारथियों की छवि भी कसौटी पर है।
महाभारत युद्ध के बाद जब शर-शय्या पर पड़े भीष्म पितामह से पांडवों की विजय का प्रमुख कारण पूछा गया तो भीष्म ने कहा कि यूं तो पांडवों की जीत का श्रेय अर्जुन को है पर अर्जुन की विजय हुई इसलिए कि श्रीकृष्ण उनके सारथी थे। शायद यही कारण है कि कौरव-सेनापति बनने के बाद कर्ण ने भी कहा था कि अर्जुन से मुकाबले के लिए मुझे कृष्ण के मुकाबले का सारथी चाहिए और तब मद्र नरेश शल्य को कर्ण के रथ की लगाम सौंपी गई।
दुर्भाग्य से, शल्य ने कर्ण का हौसला बढ़ाने के बजाय उसे तोड़ने का ही काम किया। उत्तर प्रदेश के चुनावी महाभारत में कांग्रेस के अर्जुन माने जाने वाले राहुल गांधी ने भी सारथी का महत्व समझते हुए अपनी जो टीम बनाई है, उसमें एक नहीं, कई सारथी हैं जो राहुल के चुनावी रथ की कमान संभालकर उसे विजय रथ बनाने में जी-जान से जुट गए हैं।
क्यों न हो, आखिर देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश की विधानसभा के आगामी चुनाव चाहे-अनचाहे कांग्रेस और राहुल गांधी की भावी राजनीति की दिशा जो तय करने वाले हैं। हालांकि 2007 में हुए पिछले विधानसभा चुनावों में भी राहुल गांधी ने कांग्रेस उम्मीदवारों के लिए जमकर प्रचार किया था लेकिन पार्टी सिर्फ 22 सीटें ही जीत पाई थी और माना गया कि राहुल का करिश्मा नहीं चला। पिछले साल हुए बिहार विधानसभा चुनावों में भी राहुल गांधी के प्रचार के बावजूद कांग्रेस नौ सीटों से घटकर चार पर सिमट गई। इससे भी कांग्रेस के भीतर राहुल समर्थक नेताओं को
झटका लगा।
जाहिर है, अब उत्तर प्रदेश का चुनाव राहुल के लिए बेहद चुनौतीपूर्ण राजनीतिक जोखिम साबित होने वाला है। मुकाबले में बहुजन समाज पार्टी (बसपा) सुप्रीमो मायावती हैं जो न सिर्फ चार बार सूबे की मुख्यमंत्री रही हैं बल्कि पिछले पांच साल से बहुमत की सरकार चला रही हैं। तमाम आरोपों, अंतर्विरोधों और सत्ताविरोधी रुझान के बावजूद प्रदेश में सबसे ज्यादा मजबूत जनाधार वाली नेता मायावती ही हैं, जो अपने वोट बैंक को किसी के पक्ष में भी हस्तांतरित करने की ताकत रखती हैं। ऊपर से, उनके पास राज्य की सत्ता का बल भी है। बसपा कार्यकर्ताओं की लंबी-चौड़ी फौज तो उनकी जबर्दस्त ताकत है ही।
राहुल के मुकाबले दूसरे महारथी समाजवादी पार्टी (सपा) प्रमुख दिग्गज नेता मुलायम सिंह यादव खड़े हैं, जो तीन बार राज्य के मुख्यमंत्री और दो सरकारों में केंद्रीय मंत्री भी रह चुके हैं। मुलायम के पास भी अपना स्पष्ट जनाधार और कार्यकर्ताओं का व्यवस्थित तंत्र है। मुलायम ने अपने बेटे अखिलेश यादव को भी राहुल के युवा कार्ड के मुकाबले मैदान में उतार दिया है।
राहुल का सामना भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) से भी है। उस भारतीय जनता पार्टी से जो केंद्र में प्रमुख विपक्ष है और राज्य के पिछले गैर-कांग्रेसी शासन काल में दो बार कल्याण सिंह, एक बार राम प्रकाश गुप्ता और राजनाथ सिंह के नेतृत्व में सरकार चला चुकी है। तीन बार उसके समर्थन से मायावती मुख्यमंत्री बन चुकी हैं। भाजपा के पास राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का संगठन तंत्र, अपने कार्यकर्ताओं की ताकत और मुरली मनोहर जोशी, राजनाथ सिंह, कलराज मिश्र, केसरी नाथ त्रिपाठी, विनय कटियार, लालजी टंडन, ओम प्रकाश सिंह, सूर्य प्रताप शाही जैसे जनाधारयुक्त नेताओं की फौज है। इनके अलावा भाजपा नेतृत्व ने फायर ब्रांड उमा भारती और सांगठनिक प्रबंधन के महारथी संजय जोशी को भी उत्तर प्रदेश के 'रण' में झोंक दिया है।
विपक्ष की ताकत के मुकाबले राहुल गांधी के पास उत्तर प्रदेश में कांग्रेस का कमजोर संगठन और परजीवी किस्म के क्षेत्रीय नेता हैं, जिनकी साख और वफादारी तक पर सवाल उठते रहते हैं। अपनी तमाम मेहनत के बावजूद प्रदेश अध्यक्ष रीता बहुगुणा जोशी गुटबाजी से ऊपर नहीं उठ सकीं और उन्हें लेकर कई किंतु-परंतु संगठन के भीतर ही उठते रहते हैं। पिछले बीस साल से कांग्रेस की दुर्दशा के बावजूद लगातार विधानसभा में चुनकर आने वाले विधानमंडल दल के नेता प्रमोद तिवारी को लेकर भी शिकायतें कम नहीं हैं। कहा जाता है कि उत्तर प्रदेश में चाहे सपा, बसपा या भाजपा की सरकार हो तिवारी का कोई काम नहीं रुकता है।
इन्हीं तिवारी से खफा कांग्रेस नेतृत्व ने 2007 में चुनाव के बाद छह महीने तक किसी को विधानमंडल दल का नेता नहीं बनाया था। बाद में मजबूरन तिवारी को ही फिर यह जिम्मेदारी दी गई। इनके अलावा राज्य के अन्य नेताओं में सलमान खुर्शीद, श्रीप्रकाश जायसवाल, जितिन प्रसाद, आरपीएन सिंह, जगदंबिका पाल, संजय सिंह, पी.एल. पूनिया आदि का प्रभाव-क्षेत्र भी सीमित है। सपा से कांग्रेस में आए बेनी प्रसाद वर्मा की सेहत साथ नहीं दे रही है।
ऐसे में उत्तर प्रदेश के चुनाव में सफलता का पूरा दारोमदार राहुल गांधी के आकर्षक चेहरे, उनकी संभावनापूर्ण छवि और कठिन मेहनत पर है। यह तो मानना पड़ेगा कि राहुल ने यह चुनौती स्वीकार की है और एक गंभीर सियासी जोखिम उठाया है। इन चुनावों की पूरी रणनीति राहुल ने अपने भरोसेमंदों के साथ मिलकर तैयार की है। उन्होंने अपनी टीम बनाई है, जिन्हें उत्तर प्रदेश के 'चुनावी कुरुक्षेत्र' में राहुल का 'सारथी' माना जा सकता है। राहुल की यह टीम उनकी सलाहकार भी है और उनके द्वारा लिए गए फैसलों को अमली जामा पहनाने की जिम्मेदारी भी इसी टीम की है।
इसमें कुछ चेहरे ऐसे हैं जो पर्दे के पीछे रहकर काम कर रहे हैं, वहीं कुछ को यह जिम्मेदारी सौंपी गई है कि वे चुनावी अभियान को धारदार और असरदार बनाएं। राहुल की इस टीम में उनकी बहन प्रियंका गांधी, सचिव कनिष्क सिंह, महासचिव दिग्विजय सिंह और सचिव मीनाक्षी नटराजन के अलावा नए चेहरों में सांसद राज बब्बर, कांग्रेस कार्यसमिति के सदस्य मोहन प्रकाश, केंद्रीय मंत्री बेनी प्रसाद वर्मा, श्रीप्रकाश जायसवाल, सलमान खुर्शीद, जयराम रमेश, जितिन प्रसाद, आरपीएन सिंह, सांसद पीएल पूनिया और मोहम्मद अदीब प्रमुख हैं।
इस कतार में एक नया नाम और जुड़ा है, वह है उत्तर प्रदेश में पांच बार विधायक रह चुके सुरेंद्र नाथ अवस्थी उर्फ पुत्तू अवस्थी का। इनके अलावा पार्टी में वरिष्ठ नेता जनार्दन द्विवेदी सीधे नहीं लेकिन परोक्ष रूप से राहुल के रणनीतिकार हैं ही। कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने अपने भरोसेमंद द्विवेदी को यह विशेष जिम्मेदारी सौंपी है कि वह उत्तर प्रदेश में राहुल की सफलता सुनिश्चित करने में पूरा सहयोग करें।
राहुल की पहली और प्रमुख सलाहकार हैं उनकी बहन प्रियंका। अगर राहुल कांग्रेस के अर्जुन हैं तो प्रियंका को उनका कृष्ण माना जा सकता है। मुद्दों से लेकर भाषण और नेताओं से लेकर टिकट बंटवारे तक की उलझनें दूर करने के लिए राहुल प्रियंका से सलाह-मशविरा करते हैं। प्रियंका भी पूरी दिलचस्पी लेती हैं और राहुल को वह सारी जानकारी देती हैं जो उन्हें मिलती है। प्रियंका का प्रदेश के पुराने और पार्टी व परिवार के वफादार कांग्रेसियों से सतत संपर्क है और वह उनसे जमीनी जानकारी जुटाकर राहुल से साझा करती हैं।
इसके अलावा इंदिरा गांधी और राजीव गांधी के जमाने का पूरा फीड बैक भी वह तैयार करती हैं। कांग्रेस अध्यक्ष और राहुल-प्रियंका की मां सोनिया गांधी के इलाज के बाद विदेश से लौटने पर प्रियंका की जिम्मेदारी और बढ़ गई है। उनका ज्यादातर समय सोनिया के निवास दस जनपथ पर ही बीतता है और यहीं प्रियंका और सोनिया के साथ राहुल सलाह-मशविरा करते हैं।
सूत्रों के मुताबिक यह भी तय हो चुका है कि अपने भाई राहुल की कामयाबी के लिए प्रियंका उत्तर प्रदेश के चुनावों में आखिरी और निर्णायक दौर में खुद चुनाव प्रचार में उतरेंगी। कांग्रेस को उम्मीद है कि प्रियंका का यह प्रचार राहुल और कांग्रेस के अभियान को सबसे आगे ले जाएगा और उत्तर प्रदेश की सियासी हवा बदल जाएगी ।
राहुल के विश्वस्त और उनके सचिव कनिष्क सिंह हमेशा की तरह उत्तर प्रदेश के चुनावी रण में राहुल के दूसरे सारथी हैं। कनिष्क को राहुल का दाहिना हाथ माना जा सकता है। पूर्व राज्यपाल एस.के. सिंह के बेटे और राहुल के सहपाठी रह चुके कनिष्क विदेश से मैनेजमेंट की पढ़ाई पूरी करने के बाद तन-मन से राहुल के प्रति समर्पित हैं। वह न सिर्फ राहुल के सारे राजनीतिक कार्यक्रम, जनसंपर्क, लोगों से मुलाकातें तय करने में मुख्य भूमिका निभाते हैं बल्कि राहुल उनके साथ राजनीतिक विचार-विमर्श भी करते हैं। कनिष्क की जिम्मेदारी राज्य के सभी 403 विधानसभा क्षेत्रों की जमीनी हकीकत की रिपोर्ट मंगाने की भी है।
अपने तमाम संपर्क सूत्रों से कनिष्क राज्य में विभिन्न जातीय समूहों और मुसलमानों के रुझान पर भी नजर रखे हुए हैं। टिकटों के बंटवारे में राहुल तक पूरा और सही फीड बैक कनिष्क दे रहे हैं। कनिष्क राहुल के हर दौरे में उनके साथ जा रहे हैं और स्थानीय लोगों से मिल रहे हैं। उनकी बातें सुनकर राहुल तक पहुंचा रहे हैं। जिन्हें जरूरी होता है उन्हें दिल्ली बुलाकर राहुल से मिलवाते भी हैं। पुराने नेताओं, वफादार कांग्रेसियों, मीडिया के चुनिंदा मित्रों और दूसरे वरिष्ठ जानकारों से भी कनिष्क लगातार संपर्क में रहते हैं। राहुल के दफ्तर से लेकर उनके मैदानी जनसंपर्क तक कनिष्क की अहम भूमिका है। उत्तर प्रदेश से जुड़ी हर गतिविधि पर कनिष्क की नजर रहती है और सियासी ऑपरेशनों से लेकर तमाम लोगों को जोड़ने तक का काम वह कर रहे हैं।
राहुल के सारथियों की कोर टीम में एक और महत्वपूर्ण नाम मीनाक्षी नटराजन का है। सादगी और प्रतिबद्धता के लिए मशहूर मीनाक्षी को राहुल की सामाजिक राजनीति का चेहरा माना जाता है।
राहुल के प्रचार अभियान की कमान सांसद और अभिनेता राज बब्बर को सौंपी गई है। उन्हें चुनावों के लिए गठित मीडिया समिति का अध्यक्ष बनाया गया है। राहुल के पूरे मीडिया प्रचार अभियान के संचालन की जिम्मेदारी राज बब्बर के पास है। चुनाव अभियान के लिए गढ़े गए नारे और मुद्दे तय करने में राज बब्बर की प्रमुख भूमिका है। उत्तर प्रदेश में फूलपुर से शुरू हुए राहुल के प्रचार अभियान के अग्रिम दस्ते के रूप में राज बब्बर राज्य में घूम रहे हैं। कभी समाजवादी पार्टी के जुझारू नेता रहे राज बब्बर के साथ राहुल का अच्छा संवाद है। राहुल उन्हें इस चुनावी महाभारत में अपना सारथी बना चुके हैं।
ऐसा सारथी जो राहुल के चुनाव अभियान में उनका प्रतिनिधि बन कर लोगों के बीच जाए। कांग्रेस के भीतर कहा जा रहा है कि राज बब्बर जाति और संप्रदाय से अलग उठकर सबको साथ लेकर चलने वाले राहुल के राजनीतिक-सामाजिक एजेंडे का नया चेहरा बनकर उभरे हैं। राहुल की युवा राजनीति में भी राज बब्बर सबसे ज्यादा फिट हैं। फिरोजाबाद उपचुनाव में मुलायम सिंह यादव की बहू डिंपल को 85 हजार वोटों से हराने के बाद राज बब्बर की अहमियत कांग्रेस और राहुल के यहां बढ़ गई है। राज बब्बर की अपील युवाओं, महिलाओं, मुसलमानों और हिंदुओं, सभी में है। राज भी शहर-शहर और गांव-गांव घूमकर राहुल के प्रचार अभियान को बढ़ा रहे हैं।
'नईदुनिया' से बातचीत में राज बब्बर कहते हैं - 'उत्तर प्रदेश की जनता बदलाव चाहती है। पिछले बीस सालों में यहां के लोगों ने सपा, बसपा और भाजपा सभी को देख लिया। कभी देश का गौरव रहा उत्तर प्रदेश इन बीस सालों में सबसे पीछे चला गया है। यहां की जनता राहुल गांधी में उम्मीद की किरण देख रही है इसलिए मायावती, मुलायम सिंह और भाजपा के नेता, सभी बौखलाए हुए हैं।' राज कहते हैं कि उन्हें मीडिया कमेटी का अध्यक्ष बनाकर पार्टी ने जो जिम्मेदारी सौंपी है, उसे वह पूरी तरह निभाने की कोशिश कर रहे हैं।
राहुल के एक अन्य सारथी मोहन प्रकाश कांग्रेस कार्यसमिति के सदस्य हैं और उन्हें गुजरात, महाराष्ट्र और जम्मू-कश्मीर के प्रभार के साथ उत्तर प्रदेश चुनावों की छानबीन समिति का अध्यक्ष बनाया गया है। अपनी सादगी और ईमानदारी के लिए राजनीतिक क्षेत्र में अलग पहचान बना चुके मोहन प्रकाश राहुल के निर्देश पर टिकटों के बंटवारे में पूरी पारदर्शिता बनाए रखने की कोशिश कर रहे हैं। हर टिकटार्थी से मिलकर मोहन प्रकाश ने उसकी व्यथा और कथा सुनी है। सोनिया और राहुल दोनों को उन पर भरोसा है। सूत्रों के मुताबिक कनिष्क सिंह और दिग्विजय सिंह के साथ भी मोहन प्रकाश का अच्छा तालमेल है।
पार्टी प्रवक्ता और मीडिया टीम में रह चुके मोहन प्रकाश को मीडिया विभाग के अध्यक्ष जनार्दन द्विवेदी का भरोसा भी प्राप्त है। वहीं, गुजरात के प्रभारी होने के नाते वह सोनिया के राजनीतिक सचिव अहमद पटेल के भी संपर्क में रहते हैं। वर्ष 1974 में छात्र राजनीति के शिखर पर रहे और उत्तर प्रदेश को करीब से जानने वाले मोहन प्रकाश टिकटों के बंटवारे के साथ-साथ अपने राजनीतिक अनुभव का लाभ भी राहुल के चुनाव अभियान को दे रहे हैं।
कांग्रेस महासचिव और उत्तर प्रदेश के प्रभारी दिग्विजय सिंह राहुल के रणनीतिकार होने के साथ-साथ कांग्रेस का राजपूत चेहरा भी बन गए हैं। इसके अलावा दिग्विजय के बयानों और संघ परिवार पर किए गए हमलों ने उन्हें कांग्रेस की मुस्लिम राजनीति का सिपहसालार भी बना दिया है। टिकट बंटवारे में दिग्विजय की राय का वजन है और चुनाव अभियान में भी उन्हें तरजीह दी जा रही है।
उत्तर प्रदेश की चुनाव अभियान समिति का अध्यक्ष श्रीप्रकाश जायसवाल को बनाकर राहुल गांधी ने कानपुर के इस सांसद पर भी अपना भरोसा जताया है। जायसवाल मंजे हुए कांग्रेसी नेता हैं और प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष भी रह चुके हैं। वह पार्टी का सुलझा हुआ वैश्य चेहरा भी बनते जा रहे हैं इसलिए जायसवाल राहुल के पूरे प्रचार-अभियान में उनके साथ ही चल रहे हैं। कुछ इसी तरह सलमान खुर्शीद, जितिन प्रसाद और आरपीएन सिंह को राहुल ने अपनी युवा टीम का चेहरा बनाकर उत्तर प्रदेश चुनावों में उतारा है, हालांकि टिकटों के बंटवारे में इनका प्रभाव क्षेत्र सीमित है लेकिन चुनाव प्रचार में इन्हें पूरी तरजीह दी गई है।
केंद्रीय इस्पात मंत्री बेनी प्रसाद वर्मा उत्तर प्रदेश में राहुल गांधी के चुनाव अभियान का पिछड़ा कार्ड हैं। उन्हें भी राहुल का एक सारथी माना जा सकता है। लोकसभा चुनावों के बाद कई महीनों तक खाली बैठे रहे बेनी प्रसाद वर्मा को राहुल के ही कहने पर केंद्रीय मंत्री बनाया गया। पहले दौर में उन्हें राज्यमंत्री बनाने से राहुल खुश नहीं थे और उन्होंने ही वर्मा की तरक्की करवाकर उन्हें कैबिनेट का ओहदा दिलवाया। लोकसभा चुनावों में कांग्रेस को मध्य उत्तर प्रदेश की करीब आठ-दस सीटों पर मिले कुर्मी वोटों से वर्मा का कद और पूछ दोनों बढ़ी। राहुल ने पिछले एक-डेढ़ साल में बेनी प्रसाद वर्मा से कई बार मुलाकात की और उत्तर प्रदेश पर उनसे मंथन किया।
वर्मा की जमीनी पकड़ से राहुल प्रभावित भी हुए और उन्हें पूरा महत्व भी दिया गया। अपनी हर जनसभा में राहुल उन्हें साथ रख रहे हैं। टिकटों के बंटवारे में भी वर्मा की खासी चल रही है लेकिन हाल ही में गोंडा में राहुल के सामने जनसभा में वर्मा के खिलाफ जो माहौल बना, उससे वर्मा का ग्राफ कम हुआ है। इसके अलावा अपने गृह जिले बाराबंकी में स्थानीय कांग्रेसी शिवशंकर शुक्ला और सांसद पीएल पूनिया के साथ हुए विवाद ने भी वर्मा की छवि पर असर डाला है। फिर भी विधानसभा चुनावों में वर्मा राहुल के प्रमुख सारथी बने रहेंगे।
बाराबंकी के सांसद और पूर्व आईएएस पी.एल. पूनिया भी राहुल के एक सारथी हैं। राहुल ने उन्हें मायावती के मुकाबले अपने चुनावी अभियान का दलित चेहरा बनाया है। पूनिया को अनुसूचित जाति आयोग का अध्यक्ष बनाकर मायावती को जवाब देने की कोशिश की गई है। दलित एजेंडे पर ही पूनिया मायावती को घेर रहे हैं। कभी मुलायम और मायावती के सचिव रह चुके पूनिया इन दोनों नेताओं के कमजोर पक्ष को जानते हैं। पूनिया इन दिनों जन सभाओं से लेकर टीवी चैनलों तक में राहुल और कांग्रेस का पक्ष बखूबी रख रहे हैं।
वह आंकड़ों से यह साबित कर रहे हैं कि मायावती सरकार के दौरान सबसे ज्यादा दुर्दशा दलितों और पिछड़ों की हुई है। राहुल के एक और सारथी हैं - राज्यसभा सांसद मोहम्मद अदीब। कांग्रेस और समाजवादी पार्टी के संयुक्त उपक्रम से राज्यसभा में पहुंचे अदीब विचार से कांग्रेसी हैं और उनकी वफादारी सोनिया गांधी के प्रति जगजाहिर है। पिछले कुछ सालों से कांग्रेस की मुस्लिम राजनीति में अदीब ने महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है। पिछले लोकसभा चुनावों में भी उन्होंने उत्तर प्रदेश में कांग्रेस को जिताने के लिए पूरा जोर लगाया था। सोनिया की सलाह पर राहुल ने मुस्लिम मामलों में अदीब से संवाद शुरू किया है। राहुल के सचिव कनिष्क लगातार अदीब के संपर्क में रहते हैं। टिकटों के बंटवारे से लेकर पीस पार्टी से मुकाबले तक में अदीब राहुल के मिशन यूपी में सक्रिय हैं।
इसके अलावा राहुल और सोनिया के चुनाव क्षेत्रों अमेठी और रायबरेली के जनसंपर्क की जिम्मेदारी संभालने वाले किशोरी लाल शर्मा ने 2007 में उत्तर प्रदेश में राहुल के प्रचार अभियान को पर्दे के पीछे से चलाया था, हालांकि इस बार शर्मा चुनाव अभियान की कमान भले ही नहीं संभाल रहे हैं लेकिन रायबरेली, अमेठी, सुलतानपुर इलाके में पार्टी को जिताने की जिम्मेदारी उनके ही कंधों पर है।
उत्तर प्रदेश के चुनावी युद्ध में इन सारथियों के अलावा प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष रीता बहुगुणा जोशी, विधायक दल के नेता प्रमोद तिवारी, सांसद संजय सिंह, जगदंबिका पाल, निर्मल खत्री, बिन्नू पांडे, कमल किशोर, मोहम्मद अजहरुद्दीन, प्रवीण सिंह ऐरन, अन्नू टंडन आदि भी राहुल गांधी के साथ चुनाव अभियान में सक्रिय हैं। हाल ही में कांग्रेस में दोबारा शामिल हुए पूर्व विधायक सुरेंद्र नाथ अवस्थी उर्फ पुत्तू भी राहुल के सारथियों में शामिल हो गए हैं।
कभी जितेंद्र प्रसाद के बेहद भरोसेमंद माने जाने वाले पुत्तू अवस्थी को सोनिया और राहुल दोनों का विश्वास प्राप्त है। उनकी कांग्रेस वापसी सोनिया गांधी और राहुल गांधी के सीधे दखल से मुमकिन हुई है। सोनिया के फैसले और राहुल की रजामंदी के बावजूद आखिरी वक्त तक पुत्तू का कांग्रेस प्रवेश अटकाने और लटकाने की पूरी कोशिश की गई लेकिन अंततः उन्हें पार्टी में शामिल कराया।
पुत्तू अब कांग्रेस से छिटके रहे ब्राह्मण जनाधार को वापस लाने की रणनीति में जुटे हैं। पूर्वांचल से लेकर अवध और बुंदेलखंड तक ब्राह्मणों के बीच अपनी साख और पहचान रखने वाले अवस्थी के साथ राहुल और कनिष्क का संपर्क है। कनिष्क सिंह कई बार उनसे उत्तर प्रदेश को लेकर मशविरा कर चुके हैं। पर्दे के पीछे सियासी ऑपरेशनों में माहिर माने जाने वाले पुत्तू को कुछ ऐसे ही सियासी ऑपरेशनों की जिम्मेदारी भी दी गई है। कुल मिलाकर उत्तर प्रदेश का महाभारत जीतने के लिए राहुल गांधी ने अपनी टीम और व्यूह रचना बना ली है। अब अगले तीन-चार महीने तूफानी चुनाव प्रचार अभियान के नाम होंगे, जिनका अंजाम चुनाव नतीजों के रूप में सामने आएगा।