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वेलेंटाइन डे : अब प्रेम 'क्यों' हाट बिकाय.... ?

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स्मृति आदित्य

प्रेम, प्यार, इश्क, लगाव, प्रीति, नेह, मोहब्बत, आशिकी... इस मीठे अनूठे अहसास के लिए कितने-कितने शब्द... गहरा, बहुत गहरा अहसास लेकिन आज तक अनाभिव्यक्त। प्रेम जो ना किसी से दबाव से करवाया जा सकता है ना किसी दबाव से उसे रोका जा सकता है। क्या आज भी प्रेम के मायने वैसे ही हैं जैसे हम पढ़ते-सुनते आए हैं ...

प्रेम ना बाड़ी उपजै, 
प्रेम ना हाट बिकाय
 
लेकिन क्या सचमुच?? असलियत तो ठीक इसके उलट है। प्रेम दिवस के लिए विशेष रूप से इसे बग‍ीचों में उपजाया भी जा रहा है (गुलाब और ना जाने कितने फूलों की फसल में....) और हाट ?? उसकी तो पूछिए ही मत। 'हाट' में यह इतना 'हॉट' है कि इसके अलावा तो कुछ बिकता दिखाई ही नहीं देता।
 
एक अकेला प्रेम और उसे जांचने-परखने के इतने-इतने तरीके कि प्रेम भी बेचारा असमंजस में पड़ जाए कि मैं हूं भी या नहीं?
 
एक गिफ्ट शो रूम पर देखा। एक पतले कांच की बोतलनुमा लंबी जार। उसमें कांच का ही दिल बना है। नीचे लाल पानी भरा है। इस बोतल को पकड़ते ही लाल पानी कांच के दिल में भर जाता है और ऊपर से बहने लगता है। इस आइटम का लॉजिक यह है कि अगर पकड़ने वाला व्यक्ति(लड़का/लड़की) अपने प्रेमी या प्रमिका को प्यार करता है तो ही पानी ऊपर चढ़ेगा अन्यथा नहीं... अजीब तमाशा है!
 
शो रूम पर लड़कियां अपने प्रेमी के हाथ में वह आइटम पकड़ाकर जांच-परख रही थी कि उनके दिल में क्या है। जबकि सीधा सा हिसाब यह है कि हाथों की गर्मी और घर्षण से पानी ऊपर चढ़ता है और अगर हाथ ठंडे हो तो पानी पर कोई असर नहीं होता।
 
पर सवाल यह है कि जो अहसास विश्वास के साथ जुडा है उस पर ऐसा अविश्वास?? अगर विश्वास पर टिका यह रिश्ता जांचने-परखने के लिए ऐसी बोतलों तक आ गया है तो दूसरे किसी अहसास के पैरामीटर की तो कल्पना ही की जा सकती है।
 
बरसों पहले कवि नरेश मेहता ने कहा था, ' प्रेम अब फूल नहीं फूल के चित्र जैसा हो गया है।' सचमुच ना वह अहसास बचे हैं, ना वह तड़प, ना कोमलता, ना ताजगी, ना सुगंध, ना रंग... . तो फिर प्रेम के नाम पर आखिर बचा क्या है? हार्ट शेप के गिफ्ट आर्टिकल्स?
 
इनकी भी इतनी लंबी और विविध श्रृंखला है कि आप गिनते-गिनते थक जाएंगे लेकिन बाजार के इस अनूठेपन का कहीं कोई अंत नहीं...
 
प्यार का 'विचित्र' प्रदर्शन करते एक से एक 'अतिविचित्र' आइटम... और ग्रीटिंग्स में संदेशों की ऐसी लुभावनी शाब्दिक बाजीगरी कि खुद से 'कॉम्प्लेक्स' हो जाए कि ऐसा प्यार हमें क्यों नहीं हुआ किसी से या हमने क्यों नहीं किया किसी से...
 
यानी सबकुछ है हाट में, सारे रंग हैं, सारी विविधताएं हैं बस नहीं दिखाई पड़ता है तो प्यार और प्यार का नाजुक अहसास।
 
कोई तो बताए, कहां उड़ गया 'प्यार' कपूर की तरह? प्रेम विवाह अब भी होते हैं, साथ भाग जाने की खबरें अब भी वजूद में है। प्यार के नाम पर मरने-मारने के किस्से भी प्रचलन में हैं।
 
फिर भी प्यार अपने अहसास के साथ हमें क्यों नहीं स्पर्श करता??? आखिर क्यों प्यार वक्त के साथ परिष्कृत नहीं हुआ और विकृत अधिक होता चला गया?? इस साल के वेलेंटाइन डे के आने तक भी मुद्दा यही कष्टप्रद है... आपको क्या लगता है?? क्या प्यार अब कहीं नहीं बचा??

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