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वट सावित्री व्रत के बहाने बात भारतीय नारी के चरित्र की

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डॉ. छाया मंगल मिश्र

प्रेमचंद जिनकी रचित कृतियां अजर अमर हैं, का भी मानना है कि- “सुभार्या स्वर्ग की सबसे बड़ी विभूति है। जो मनुष्य के चरित्र को उज्जवल और पूर्ण बना देती है। जो आत्मोन्नति का मूलमंत्र है।” हमारे देश, संस्कृति व शास्त्र ऐसी ही अनेक सुभार्याओं के वर्णन से भारतीय नारियों के जीवन पथ को प्रशस्त करता रहा है।
 
जबलपुर में आयोजित अखिल भारतीय साहित्य परिषद के पन्द्रहवें त्रैवार्षिक राष्ट्रीय अधिवेशन में सुप्रसिद्ध शिक्षाविद् एवं लोक साहित्य की विदुषी लेखिका डॉ विद्या बिन्दु सिंह ने एक ऐसा प्रकरण अपने व्याख्यान में उद्धृत किया जिसे सुनकर किसी भी भारतीय का चिंतित होना स्वाभाविक है।

उन्होंने कुछ उदाहरण दिए जिनमें कुछ लोगों का मानना है कि सुभार्या या पतिव्रत पत्नी के ये नारी चरित्र भारतीय नारी की कमजोरी को प्रकट करते हैं। इन्होने कहा कि भारतीय नारियों की ऐसी छबि के उन पहलूओं को देखें जिनमें वो आत्मबल, आत्मसम्मान, आत्मनिर्णय जैसे कई स्वहित को लेने में सक्षम रहीं व भारतीय रचनाधर्मिता, धर्म, इतिहास को हमेशा नए आयाम व आदर्श दिए। और यही सत्य भी है।
 
शेक्सपियर ने भी माना और कहा है –“मेरे पूर्वजों से परंपरा प्राप्त पतिव्रत्य हमारे घर का रत्न है”- (आल्स वेल दैट एंड्स वेल, 4/2)
 
प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि सती, सावित्री, सीता एवं अनुसुइया जैसे नारी चरित्र जो हजारों वर्षों से भारतीय समाज के समक्ष आदर्श बने रहे हैं, क्या धर्म-निरपेक्षता के इस युग में आकर नकार दिए जाने चाहिए ? क्या ये पौराणिक युग के नारी चरित्र भारतीय नारियों की कमजोरी के प्रतीक हैं ?

क्या वह समस्त लोक साहित्य, पौराणिक साहित्य एवं महाकाव्य आदि विपुल भारतीय एवं वैश्विक साहित्य नकार दिया जाना चाहिए जिसे हम हजारों सालों से अपनी आत्मा में रचाते-बसाते आए हैं। मेरा निजी मत है कि बिना सम्पूर्ण अध्ययन व समस्त बिन्दुओं पर विचार किये बिना ऐसी बातें करने व अनर्गल सोचना कई गलत बातों को बढ़ावा देती है। 
 
“मानव की सबसे बड़ी संपत्ति उसकी सुभार्या है”- ऐसा बर्टन का भी मानना है। और ऐसे चरित्रों में से एक है सावित्री। ‘सावित्री’ महाभारत में आए एक उपाख्यान की महिला-चरित्र है। महाभारत का युद्ध ईसा से 3137 वर्ष (अर्थात् आज से 5154 वर्ष) पहले हुआ। माना जाता है कि वर्तमान में उपलब्ध ‘महाभारत’ ग्रंथ की रचना नौवीं शताब्दी ईस्वी पूर्व (अर्थात् आज से लगभग 2900 वर्ष पहले) हुई। जबकि भारतीय मान्यता के अनुसार इस ग्रंथ की रचना महाभारत युद्ध के काल में ही हुई।

महाभारत के वनपर्व में मार्कण्डेय ऋषि युधिष्ठिर को सत्यवान एवं सावित्री का आख्यान सुनाते हैं। इस आख्यान के अनुसार मद्रदेश की राजकुमारी सावित्री अपने पिता अश्वपति के आदेश पर देशाटन करके, सदैव सत्य बोलने वाले ‘सत्यवान’ नामक राजर्षि-पुत्र को अपने पति के रूप में चुनती है जो जंगल से लकड़ी काटकर अपने तथा अपने माता-पिता के उदर की पूर्ति करता है तथा जिसकी आयु केवल एक साल शेष बची है। जब यमराज, सत्यवान की जीवात्मा को ले जाते हैं तो सावित्री भी उनके साथ चल देती है। वह अपने विवेक, बुद्धि एवं मृदुसम्भाषण से यमराज को प्रसन्न करती है और यमराज उसके पति को फिर से जीवनदान देते हैं। यह कथा सर्वविदित है।
 
“आर्य कन्या मान लेती स्वप्न में भी पति जिसे, भिन्न उससे फिर जगत में और भज सकती किसे”- मैथिलिशरण गुप्त (रंग में भंग,77)
 
जो स्त्री अपने पति का चयन स्वयं करती है, जो स्त्री यह जानने पर भी कि उसकी आयु केवल एक वर्ष शेष बची है, उसी से विवाह करने का निर्णय लेती है, जो स्त्री यमराज से अपने पति को पुनः प्राप्त कर लेती है, वह आधुनिक युग के तथाकथित विद्वानों को किस दृष्टि से कमजोर दिखाई देती है?

क्या सावित्री की मजबूती तब दिखाई देती जब वह स्वयं द्वारा चयनित पति को इसलिए त्याग देती कि उसकी आयु केवल एक वर्ष ही शेष है! या फिर वह अपने पति को यमराज के मुंह से छीनने के लिए कोई प्रयास नहीं करती और नियति के समक्ष हार मानकर बैठ जाती! क्या किसी भी दृष्टि से यह सिद्ध होता है कि सावित्री, भारतीय संस्कृति या वांग्मय का कमजोर नारी पात्र है !
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 कहा जा सकता है कि सती, सावित्री एवं सीता भारतीय संस्कृति की कमजोर नारियों की प्रतीक नहीं हैं, उनकी कथाएं नारी मुक्ति के आंदोलन में कहीं भी बाधा उत्पन्न नहीं करतीं। वे तो अपने बुद्धि-विवेक एवं तप-बल से अपने निर्णय स्वयं लेती हैं और गलत बात के विरोध में खड़े होकर संसार के नियमों को बदलने का साहस रखती हैं। वे दाम्पत्य प्रेम की ऐसी दिव्य प्रतिमाएं हैं जिनसे प्रेरणा लेकर कोटि-कोटि भारतीय नारियां अपना पथ स्वयं प्रदर्शित करती आई हैं। ‘जरुरी नहीं है कि इन्हीं नारियों को अपना जीवन आदर्श मानें! यह समस्त स्वीकार्यता स्वैच्छिक है, आनंददायी है तथा जीवन को सुंदर बनाने का सिद्ध मंत्र है’। 
 
स्त्री व अस्मिता संबंधी मिथकों के क्रम में मुख्यतः स्त्री और पुरुष के संबंध पति पत्नी के रुप में केंद्रित किए गए हैं। भारत में जहां  ''अच्छी स्त्री'' अच्छी पत्नी की पर्यायवाची है, वहां स्त्रियो‍चित पहचान के निर्माण में मिथक काफी प्रासंगिक हो जाते हैं। यह स्त्रियों से संबंधित सर्वाधिक लोकप्रिय और जाने माने मिथकों में झलकता है, उदाहरण के लिए सावित्री और सत्यवान की कहानी, नल और दमयंती और सबसे ऊपर राम और सीता के आख्यातन में अन्य भी जैसे द्रौपदी, गांधारी, अरुंधती और यहां तक कि अहिल्या भी अपने पतियों के संदर्भ में ही देखी गईं।
 
 परिणामस्वरूप एक ऐसी स्त्रियोचित पहचान बनी, जिसमें किसी भी स्त्री  के लिए उसकी सर्वोत्कृष्टी अभिलाषा अपने पति की ईश्वर के समान सेवा करना और पतिव्रता बने रहना था। प्रमुख मिथकों ने दृढ़ता के साथ इस संदेश को संप्रेषित किया कि महिलाओं को पवित्र और निष्ठवान होना चाहिए और यदि वे पर्याप्त मात्रा में ये विशेषताएं अपने भीतर रखती हैं, तो उनका ये सदाचार हर मुसीबत में उनकी रक्षा करेगा। पतिव्रता पत्नी का यह प्रशंसनीय समर्पण उसके भीतर एक शक्ति उत्पन्न करता है, जो उसके पति को काल के गाल से भी निकाल सकता है या वह सूर्य की खगोलीय परिक्रमा को भी रोक सकता है।
 
“पतिव्रतानां नाकस्मात् पतन्त्यश्रूणि भूतले”- वाल्मीकि (रामायण युद्धकांड,111/67)
 
-पतिव्रताओं के आंसू इस पृथ्वी पर व्यर्थ नहीं गिरते।  
 
सावित्री के सदाचार और त्याग ने सिद्ध किया कि वह अपनी इच्छा से पति के पीछे-पीछे मृत्युलोक तक जा सकती है और अंत में उसके पति सत्यवान का जीवन दोबारा लौटा कर उसे सम्मानित करती है।
 
“सा भार्या या शुचिर्दक्षा सा भार्या पतिव्रता। सा भार्या या पतिप्रीता सा भार्या सत्यवादिनी।”
 
- आचार्य चाणक्य।
 
वही भार्या है जो पवित्र और चतुर है, वही भार्या है जो पतिव्रता है। वही भार्या है जिस पर पति की प्रीति है, वही भार्या है जो सत्य बोलती है।  
 
अब यह हम पर निर्भर है की हम इन सभी गुणों पर अपने स्वविवेक का इस्तेमाल करें। इन गुणों का विकसित होना जीवन साथी के गुणों पर भी निर्भर करता है। यह नहीं भूलना चाहिए कि यदि सत्यवान है तो ही सावित्री है, यदि राम है तो ही सीता है, यदि शिव है तो ही पार्वती है...यदि पतिव्रता की बात है तो उसके लिए पत्निव्रता साथी का भी होना अनिवार्य है। वर्ना सब बेकार है...

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