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दो हाथ भी कैसे उठ गए?

- अशोक चक्रधर

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- चौं रे चम्पू! बात अधूरी-सी रह गई। बरखा नैं का पूछी?
- 'वी द पीपुल’ कार्यक्रम में 'अंग्रेज़ी हैं हम?’ चर्चा के दौरान बरखा दत्त ने स्टूडियो में आए विशेषज्ञों और ऑडिएंस में बैठे युवाओं से पूछा कि कितने लोग हिन्दी अख़बार पढ़ते हैं? सात विशेषज्ञों में से चार-पांच के हाथ उठे और दो उठे सौ-सवा-सौ युवाओं के बीच से। युवाओं में जिस एक युवती ने हाथ उठाया था, उसके प्रति किसी प्रशंसा भाव के बजाय बरखा ने उससे पूछा कि तुम अपनी इच्छा से पढ़ती हो या परिवार के लोग बाध्य करते हैं?

- अच्छा! ऐसै पूछी?
- हां चचा! उनके सवाल से ही तय हो गया कि यह स्टूडियो हिन्दी के प्रति सहिष्णु तो नहीं ही है। माने बैठा है कि ‘अंग्रेज़ी हैं हम’। प्रश्नवाचक चिन्ह लगाना बेकार था। मुझे लगा कि ‘हिन्दी हैं हम’ की गुंजाइश यहां नहीं है। हिन्दी अख़बार के लिए दो हाथ भी कैसे उठ गए? मैं तो डर गया, पर वह लड़की आत्मविश्वास के साथ अंग्रेज़ी में बोली, हिन्दी मेरी मातृभाषा है, परिवार का कोई दबाव नहीं है। बरखा ने हाथ न उठाने वाले लोगों की तरफ इशारा करते हुए पलटकर कहा, लेकिन इतने सारे लोग तो नहीं पढ़ते!
युवती ने अब सहमते हुए कहा, हिन्दी अखबार न पढ़ने वाले ऐसा समझते हैं कि इनमें मसाला ज़्यादा होता है, हिन्दी अख़बारों को गॉसिप के लिए पढ़ा जाता है, जबकि अच्छी ख़बरें अंग्रेज़ी के अख़बार में ही होती हैं। सूमसाम सी बैठी हुई उस सभा में सबने ठहाका लगाया।

- मतलब, हिन्दी के अखबारन में सिरफ गप्प हौंयं का?
- भला हो कि सम्भाल लिया पवन वर्मा ने और कहा कि मैं तो कहूंगा, अंग्रेज़ी अखबारों की अपेक्षा हिन्दी के कुछ अख़बारों के संपादकीय कई बार भाषा, व्याकरण और कथ्य की दृष्टि से कहीं ज़्यादा सारगर्भित होते हैं। इसलिए बात को सतही नहीं, ऐतिहासिक तौर पर देखा जाना चाहिए। फिर मैंने भी, जितना समय मुझे मिला, हिन्दी की वकालत की।

- तैंनैं का कही?
- मैंने कहा कि हिन्दी पूरे विश्व में सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषाओं में से एक भाषा है। साउथ एशिया में प्रिंट मीडिया और इलेक्टॉनिक मीडिया अगर सबसे बड़ा किसी भाषा में है तो वह हिन्दी में है। हिन्दी न केवल भारत में बल्कि सूरीनाम, गुयाना, त्रिनिदाद, फीजी, मॉरिशस, यूके, अमेरिका में प्रवासी भारतीयों के बीच बोली, सुनी और समझी जाती है।
अंग्रेज़ी में कामकाज करने के बाद जब आप बाहर निकलते हैं तो हिन्दी में बात करते हैं। मैं जानता हूं कि इस चर्चा के बाद जब आप नीचे उतरेंगे बहुत से लोग हिन्दी में ही बात करते हुए जाएंगे। सवाल भाषा के वर्चस्व की लड़ाई का नहीं होना चाहिए। भाषाएं हमारे जीवन के लिए हैं, न कि जीवन भाषाओं की लड़ाई को समर्पित किया जाए। भाषाएं विकास का रास्ता बनाती हैं और अगर भाषाओं का ये मेल-जोल पनप रहा है तो इससे कोई ख़तरा नहीं है। कोई भी भाषा एक जैसी कभी नहीं रही। शुद्धतावादी दृष्टिकोण ग़लत है।

कबीरदास ने कहा था 'कबिरा संस्कृत कूपजल, भाखा बहता नीर’। संस्कृत भाषा आज नहीं बोल सकते, भले ही राजनाथ सिंह कितना ही चाहें, क्योंकि चलन में नहीं है। और फिर संस्कृत से सीधे हिन्दी नहीं आ गई है। संस्कृत ने पाली, प्राकृत, अपभ्रंश के रास्ते, भारोपीय भाषाओं का एक विराट ताना-बाना बुन दिया है, जिसमें बांग्ला, उड़िया, असमिया, हिन्दी, गुजराती, मराठी सारी भाषाएं आती हैं। अगर हम ये जान जाएं कि हमारी अधिकांश भाषाओं का परिवार एक ही है तो आपस का तनाव ही समाप्त हो जाएगा।

- अरे जब इत्ती बात बोलि आयौ तौ फिर डरिबे की का जरूरत ऐ?
- मैंने अपने आपसे भी पूछा, क्या हम अंग्रेज़ी के दुश्मन हो जाएं? नहीं, हम अंग्रेज़ी के दुश्मन क्यों होंगे भला? ये जो युवा बैठे हुए हैं या इन जैसे और जो युवा हैं, जो अंग्रेज़ी के कारण भारत का नाम रौशन कर रहे हैं, उनकी ईमानदारी पर शक कैसे कर सकते हैं। विडम्बना तो यही है कि हम पूरे देश की प्राथमिक शिक्षा में हिन्दी को अनिवार्य नहीं कर पाए।

- हां, लल्ला! जे बात तौ है।

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