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क्या सचमुच अंग्रेज़ी हैं हम?

-अशोक चक्रधर

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-चौं रे चम्पू! चेहरा पै हवाई कैसै उड़ी भई ऐं रे?
-दरसल, मैं हवाई बातों से बहुत घबराया हुआ हूं।
-हां सो तौ दिखाई दै रह्यौ ऐ। बैठ जा, पानी पी, पसीना पौंछ। अब बता!

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-चचा, मैं एनडीटीवी के एक टॉक शो में गया था, जिसका शीर्षक था ‘अंग्रेज़ी हैं हम?’ रोमन में लिखा था। वह तो कोई बात नहीं क्योंकि शो ही अंग्रेज़ी का है! ‘अंग्रेज़ी हैं हम?’ में प्रश्नवाचक चिन्ह लगाकर थोड़ी राहत तो दी कि अभी ये सवाल ही है, शायद हम पूरी तरह से अंग्रेज़ी हुए नहीं हैं। हम सब अंग्रेज़ी नहीं हैं, लेकिन क्या हम अंग्रेज़ी हैं, मुद्दा ये था, और नई पीढ़ी के जो युवा वहां थे, प्राय: सभी हिन्दी जानते-समझते तो थे, पर हिन्दी या भारतीय भाषाओं को सीखने का कोई लाभ है, ऐसा नहीं मानते थे। अंग्रेज़ी से मिले फ़ायदों की चिकनाई की दीप्ति ज़रूर उनके चेहरों पर दमक रही थी।

-चौं नायं दमकैगी। जो भासा मान-सम्मान दिवाबै, मक्खन-रोटी-रुपइया कौ इंतजाम करावै, दुनिया की सैर करावै, सूचना-संचार ते जोड़ै-जुड़ावै, सो प्यारी नायं लगैगी का?

-और अपनी मां सरीखी अपनी-अपनी मातृभाषाएं! माना कि उन्हें सीखने में कोई श्रम नहीं करना पड़ता, लेकिन मैं भयंकर सोच में पड़ गया चचा! हालांकि, वे युवक-युवतियां इस देश के क़स्बों और गांवों के युवाओं का प्रतिनिधित्व नहीं करते थे, लेकिन पिछले एक दशक में युवा-चिंतन में आए बदलाव को अनदेखा नहीं किया जा सकता।

मेरी चिंता का कारण यही युवा वर्ग है जिसको हमारे देश ने हिन्दी के प्रति गंभीरता नहीं दी। उन्हें दोषी नहीं ठहराया जा सकता। वे अपनी-अपनी मातृभाषाएं जानते हैं। अंग्रेजी जानते हैं, चूंकि उन्होंने अंग्रेज़ी माध्यम से पढ़ाई की है। यह जो हमारे विभिन्न तथाकथित अहिन्दीभाषी प्रांतों से आया हुआ युवा है, ठीकठाक हिन्दी समझता है। कक्षा से, कार्यालय से, कामकाज से निकलने के बाद परस्पर हिन्दी या हिंग्लिश में ही बात करता है, लेकिन गुणगान अंग्रेजी का करता है। गुणगान करो, इसमें भी कोई बुराई नहीं है, लेकिन अपमान तो न करो अपनी भाषाओं का। बिना जाने हिन्दी को इतना कमतर करके तो न आंको।

-अरे बात शुरू कैसे भई जे बता!
-चचा, बरखा दत्त योग्य एंकर हैं। सदैव ज्वलंत विषयों पर बौद्धिक चर्चाएं आयोजित कराती हैं। कार्यक्रम में अतिथि ज़्यादा होते हैं। सबको समय देना होता है। फिर प्रश्नोत्तर काल भी होता है। अधिक व्याख्या की गुंजाइश वहां होती नहीं। फिर मुंडे-मुंडे मतिर्भिन्ना। एक विषय पर अलग-अलग तरह से सोचने वाले लोगों को बुलाया जाता है। अनेक प्रकार के पूर्वाग्रह रहते हैं। ख़ैर, शुरुआत में बरखा ने हमारे देश की एक सौ अठानवै भाषाओं के बारे में बताया कि वे संकट के कगार पर हैं, मरणासन्न हैं।

दूसरी ओर उन्होंने राजनाथसिंह के ताज़ा बयान का उल्लेख किया जो कहते हैं कि अंग्रेज़ी ने भारत की सर्वाधिक क्षति की है और उससे ज़्यादा अंग्रेज़ियत ने। बातचीत मुड़ी इस ओर कि ये जो भाषाएं मर रही हैं, क्या वे अंग्रेज़ी के कारण मर रही हैं या अंग्रेज़ी अगर पनप रही है तो उसके लिए इन भाषाओं की कमज़ोरी कोई कारण है। अंग्रेज़ी फैलती, पनपती जा रही है, पर कितनी शुद्ध बोली या लिखी जाती है।

बातचीत में पवन वर्मा ने अटल बिहारी वाजपेयी को उद्धृत किया कि अंग्रेज़ भारत को छोड़कर इसलिए चले गए कि यहां ग़लत ढंग से अंग्रेज़ी बोला जाना उनको बर्दाश्त नहीं हुआ। बात मज़े की थी, ठहाका लगा, लेकिन चचा तुम ये बताओ, सर्वाधिक शुद्ध किस भाषा में बोला जा सकता है?

-अरे, लल्ला रे! जो भाषा मैया की गोद में सीखी, जो प्राथमिक शिक्षा में गुरू जी की संटी के तले कानन में परी, जाकी व्याकरण हम बिना सीखे जानैं। जामैं जादा किताब पढ़िबे कूं मिलैं, जामैं दयौ भयौ ज्ञान झट्ट ते आ जाय, सो भासा अच्छी तरियां बोली जाय सकै।

-चचा, एक और आनन्ददायी बात बताता हूं, बरखा ने जब वहां पूछा कि हिन्दी का अख़बार पढ़ने वाले कितने लोग हैं, तो मालूम है कितने लोगों ने हाथ उठाया? रुको, एक फोन आ गया, बाद में बताऊंगा।

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