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बाबुल, अब ना ब्याहना विदेश...

धनंजय

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हमें फॉलो करें एनआरआई लड़के
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बेटी को एनआरआई लड़के संग ब्याहने का क्रेज तेजी से खत्म होता नजर आ रहा है। भारतीय संस्कृति के नाम पर घर में बंद रखने, नौकरानी बना देने, गाहे-बगाहे भी भारत न लौटने जैसे अनुभवों ने बेटी के पिताओं का झूठा भरम तोड़ा है। तेजी से विकसित होते भारत के महानगरों की मल्टीनेशनल कंपनी में अच्छी कमाई करते लड़के ही बेटी के लिए भले लगने लगे हैं।

अपनी बेटी के लिए किसी एनआरआई दामाद की चाहत अब भी जोर मार रही है? अमेरिका, लंदन, ऑस्ट्रेलिया में किसी आईटी या दूसरी मल्टीनेशनल कंपनी में काम करने वाले किसी एनआरआई लड़के पर बाजी लगाने की सोच रहे हैं? तो रुकिए। शादी करने के पहले एक बार कुछ एनआरआई दामाद वालों से पूछ तो लीजिए। उनकी व्यथा-कथा सुनकर बहुत संभव है कि आप कह उठेंगे - 'बच गए, नहीं तो अनजाने में बेटी को 'कालापानी' की सजा हो जाती।' एनआरआई लड़कों से बेटियों की शादियां अनेक लोगों के लिए बेटियों को 'तड़ी पार' करने जैसा साबित हुआ है।

धर्मेंद्र खानदान की ताजा हिट फिल्म 'यमला, पगला, दीवाना' इस कटु यथार्थ के संदर्भ में बहुत मौजूं है। इस फिल्म की कहानी में पंजाब के किसान फैमिली के मुखिया अनुपम खेर (जोगिंदर) इस बात पर अड़े हुए हैं कि उनकी इकलौती बहन के लिए एनआरआई दूल्हा ही चाहिए। यह उनकी मूंछ का सवाल भी है। उनकी बहन की एक सहेली भी शादी के बाद 'कनड्डा' जाने के सपने देखती रहती है।

अगर अधिकतर एनआरआई शादियों के हश्र पर नजर डालें तो कहानी का यह अंत सुखद है कि अनुपम खेर की बहन की शादी एक देशी पंजाबी से ही होती है। लेकिन बॉबी देओल (गजोधर) को शादी करने के लिए एनआरआई का रूप धरना ही पड़ता है। यह पंजाब में कभी एनआरआई दामाद के क्रेज को रेखांकित करता है। लेकिन अब वह क्रेज नहीं रहा। बेटी को ब्याहने का 'ग्रेट अमेरिकन ड्रीम' अब दुःस्वप्न में भी तब्दील होने लगा है।

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विदेशों में एनआरआई दामादों के घर में बेटियों के दाइयों (मेड सर्वेंट) में तब्दील हो जाने जैसी कहानियों ने अब उस सपने पर विराम लगा दिया है। इस क्रेज के कटु यथार्थ की यह इंतहा ही है कि कुछ एनआरआई युवक देशी लड़कियों को इसलिए ब्याह कर ले जाते हैं क्योंकि वहां मेड सर्वेंट नहीं मिलतीं। ले जाने के बाद उनके पासपोर्ट जब्त कर घर में रख लेते हैं ताकि वे लाख छटपटाएं लेकिन अपने वतन वापस न जा पाएं। घरों में वे सिर्फ भारतीय संस्कृति की 'शोपीस' बनकर रह जाती हैं। दिल को हिला देने वाली ऐसी कई कहानियां अब सुनने को आ रही हैं।

एनआरआई दामाद वालों से बात करिए तो कई का यह रोना सुनने को मिलेगा - 'बेटी को देखने को तरस गया हूं। दो-चार साल में एक बार आ जाएं तो वही बहुत है।' इससे सीख लेकर अपनी दूसरी बेटियों के लिए एनआरआई दामाद ढूंढ़ने की भूल नहीं कर रहे हैं लोग। बड़ी बहन का 'तड़ी पार' होना देखकर छोटी बहनों ने भी ये सपने देखने बंद कर दिए हैं।

हम कहने को यह जरूर कहते हैं कि शादी हो गई तो बेटी पराई हो गई लेकिन यह केवल कहने भर के लिए ही है। देश में रहने पर 'पराई' को भी मां-बाप-भाई का प्यार वैसे ही बदस्तूर मिलता रहता है लेकिन अगर आपने अपनी बेटी की शादी किसी एनआरआई से कर दी तो समझिए वह सचमुच पराई हो जाती है। देखने को तरस जाएंगे अपनी बेटी को। बेटी पराई हो गई तो क्या हुआ दामाद के रूप में एक बेटा भी तो मिल जाता है। लेकिन एनआरआई दामाद किया तो बेटी तो हाथ से गई ही, बेटा भी नहीं मिला।

इसलिए अब गुड़गांव, ग्रेटर नोएडा या दूसरे किसी शहर की मल्टीनेशनल कंपनी में काम करने वाले लड़के दामाद के रूप में मिल जाएं, वही अच्छे हैं। सोच तेजी से बदल रही है। मसलन, गुड़गांव क्या न्यूयॉर्क से कम है? सिर्फ बुरे अनुभवों की ही बात नहीं है। अब भारत भी इतनी तेजी से बदल रहा है कि यहीं अमेरिका बस रहा है। अब यहीं मोटी सैलरी और अमेरिकन लाइफ स्टाइल वाले दामाद मिल रहे हैं तो विदेश जाने की जरूरत क्या है? सिर्फ माता-पिता की बात ही नहीं, खुद लड़कियां तौबा कर रही हैं।

मैट्रीमोनियल वेबसाइटों पर अब एनआरआई दूल्हों के पतों की वह धूम नहीं रही जो 10 साल पहले थी। वह सूचकांक अब धड़ाम हो गया है समझिए। आज दामाद की खोज कर रहे लोगों में महज 25 फीसदी ही विदेशी प्रोफाइल पर क्लिक कर रहे हैं। इसका एक परिणाम यह हुआ है कि एनआरआई लड़के देसी बहू की अपने माता-पिता की चाहत पूरी करने के चक्कर में वर्षों से कुंआरे घूम रहे हैं।

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विदेशों में बसे उनके मां-बाप चाहते हैं कि भारतीय बहू मिले लेकिन उनका मिलना अब मुहाल हो रहा है। अब एनआरआई लड़के से 'चट मंगनी पट ब्याह' वाली स्थिति कतई नहीं रही। बेटी को ब्याह कर विदेश भेजने की 'परी कथा' का दौर खत्म हो गया है।

विदेश जा कर आपकी बेटी अपने मनमाफिक जिंदगी जी सकेगी, मां-बाप का वह सपना भी सिरे नहीं चढ़ पाया। पता चला कि देसी दामाद के साथ बेटियां ज्यादा मुक्त होकर जीवन जी रही हैं, विदेश गई बेटियों पर ही बंदिशें लद जाती हैं। विदेश में रहने वाले भारतीय परिवार अपनी संस्कृति को जिंदा रखने के नाम पर अपनी भारतीय बहुओं को शोकेस की तरह घर में बंद रखने में अपनी शान समझते हैं।

पहले एनआरआई दामाद नहीं ढूंढ़ पाए तो मजबूरी में देसी दामाद को अपनाना पड़ता था। शादी के बाद बहुत दिन तक देसी दामाद को हिकारत की नजर से देखा जाता था। बेटी अपने पति के साथ अमेरिका, लंदन, ऑस्ट्रेलिया चली गई तो पास-पड़ोस वालों के सामने डींगे मारने में ही महीनों कट जाते थे लेकिन अब एनआरआई दामाद की जगह आरआई (रेजीडेंट इंडियन) दामादों की चल पड़ी है।

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