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असल में कौन है स्त्री2 का सरकटा, समाज की कौन-सी सोच का आईना है इस फिल्म का आधार

एक बार फिर स्त्री की कहानी ने दिया दमदार सन्देश

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WD Feature Desk

Stree2: 6 साल के इंतज़ार के बाद आई स्त्री 2 और एक बार फिर दर्शक पहुच जाते हैं चंदेरी गाँव में। फिल्म की शुरुआत में चंदेरी से आधुनिक सोच वाली लड़कियां अचानक गायब होने लगती हैं। चंदेरी वालों को लगता है कि लड़कियां अपना करियर बनाने शहर गई हैं, लेकिन बाद में पता चलता है कि लड़कियों को सरकटा लेकर जा रहा है। और यहीं से स्त्री 2 की कहानी के पीछे का मकसद पता चलता है।ALSO READ: स्त्री 2 के गाने 'आज की रात' में तमन्ना भाटिया के शानदार डांस मूव्स ने मचाया धमाल

असल में कौन है स्त्री2 का सरकटा
सरकटा पितृसत्तात्मक समाज का प्रतिनिधित्व करता है जो महिलाओं की आधुनिक सोच को पसंद नहीं करता। सरकटे के रूप में समाज के उस चेहरे को उजागर करती है जो औरत को चार दीवारी के अन्दर रहने को मजबूर करता है। वे महिलाएँ जो अपनी शर्तों पर जीने की कोशिश करती हैं कैसे पुरुषों के अहम् को चोट पहुँचती हैं फिल्म में बहुत कुशलता से दिखाया है।

फिल्म की सबसे बड़ी ताकत इसकी स्क्रिप्ट है, क्योंकि यह संदेश ठूसा हुआ नहीं लगता है। फिल्म में जो भी सवाल खड़े किए गए, दर्शक उससे कनेक्ट कर पाते हैं क्योंकि ये वही ज्वलंत मुद्दे हैं जो हमें आए दिन झकझोरते हैं।


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क्या है स्त्री2 का सन्देश
जिन दीवारों पर पहले (स्त्री 1 में) लिखा होता था, ‘ओ स्त्री कल आना’, वहीँ पर (स्त्री 2में)  लिखा देखना, ‘ओ स्त्री रक्षा करना’! बड़ा सुन्दर जान पड़ता है।

स्त्री 1 का सन्देश था एक स्त्री समाज से क्या चाहती है : ‘प्रेम और इज्जत’। वहीँ स्त्री 2 का सन्देश है समाज का महिलाओं के लिए पिछड़ा नज़रिया, जिसे इलाज की ज़रुरत है।

स्त्री 2 का वो सीन जब सरकटा अपनी (आँखें) नज़र गाँव के मर्दों पर लगा देता है और फिर जिस तरह उनका नज़रिया औरतों के लिए बदलता है वो बड़ी कारीगरी से फिल्माया है। ये देश के उन हालातों को दिखता है  जहां सब किसी एक के पीछे आंखें मूंद कर चल पड़ते हैं। ये सोच गुलामी की सोच है।

स्त्री 2 है सटीक सामाजिक टिप्पणी
इस मामले में फिल्म के लेखक निरेन भट्ट की कलम ने तलवार का काम किया जिसकी धार बहुत पैनी है। सिनेमा अगर अपने समय के समाज पर टिप्पणी नहीं करता है तो वह सिनेमा नहीं कहलाता है। फिल्म ‘स्त्री 2’ में भी इसके लेखक निरेन भट्ट ने तमाम मनोरंजक मसालों के बीच एक कहानी छोटी सी ऐसी बुन दी है जिसे समझने वाले जरूर समझ सकेंगे।
महिलाओं का चूल्हे, चौके की जिम्मेदारी से बाहर आकर अपने मुताबिक जिंदगी जीना आज भी कइयों को रास नहीं आता। जब भी कोई रेप केस सामने आता है, महिलाओं की नीयत और कपड़ों पर सवाल उठाए जाते हैं।
  • क्या आज के समय में भी महिलाओं की आधुनिकता को छोटे कस्बों में स्वीकारा जाता है?
  • क्या चूल्हा-चौका और पति के साथ उसकी मर्जी होने पर हमबिस्तर होना ही पत्नी का ‘धर्म’ है?
  • पितृसत्तात्मक समाज कैसे बोखला जाता है जब कोई स्त्री अपनी मर्जी के हिसाब से अपनी दुनिया बनाना चाहे?
फिल्म इन सारे सवालों को बिना कहे, एक ऐसी मनोरंजन कहानी के साथ पेश कर देती है, जैसे किसी ने मिठाई में रखकर बच्चे को कड़वी दवाई खिला दी हो।

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