रेखा, ऊषा, लक्ष्मी, और माला जैसी सैकड़ों महिलाएं कुछ समय पहले तक यह समझ नहीं पाती थीं कि वह अपने घर का खर्च कैसे चलाएं... दूर-दूर तक उन्हें ना तो रोज़गार का कोई जरिया दिखता था और ना ही कुछ कर पाने की संभावना, इनके मन में हमेशा इसी बात की चिंता रहती थी कि वह ऐसा क्या करें जिससे कि उनके घर की रोजी-रोटी चल सके... उन्हीं दिनों में इन महिलाओं से किसी ने महिला बाज़ार का ज़िक्र किया..
शुरुआती दिनों में तो इन्हें कुछ समझ नहीं आया कि आखिर ये कैसा बाज़ार है और वहां क्या होता है.. फिर एक दिन इन सबने मिल कर ठानी कि आज महिला बाजार जा कर देखते हैं कि आखिर वहां होता क्या है.. दिल्ली के सीविक सेंटर के पीछे टैगोर रोड पर साल 2007 से लगाने वाला ये बाजार, बाकी बाज़ारों की तुलना में कुछ अलग है...सैकड़ों की संख्या में यहां महिलाएं अपनी खुद की रेडी और पटरी पर दुकान लगाती हैं और हज़ारों की आमदनी करती हैं.. बाज़ार की रौनक देखकर रेखा, ऊषा, लक्ष्मी और माला के तो जैसे खुशी का कोई ठिकाना नहीं रहा..आज ये महिलाएं अपने घर के आस-पास की कालोनियों में बर्तन बेचकर मिले पुराने कपड़ों को इस महिला बाज़ार में बेचकर अच्छा मुनाफा कमा रहीं हैं..
इन महिलाओं ने हमें बताया कि गैर सरकारी संगठन सेवा की महिलाएं इनके इलाके में आती थीं और हमें आत्मनिर्भर करने के तौर तरीके बतातीं थीं.. इतना ही नहीं इन लोगों ने ही हमारे बैंक में खाते भी खुलवाए और हमें रोजगार के तौर तरीके भी बताएं.. सेवा की इन्हीं कार्यकत्रियों से हमने अपनी समस्याएं बताई और एक ऐसे बाज़ार की जरुरत महसूस की जहां केवल महिलाएं हो और वो अपनी दुकान बिना किसी डर भय से लगा सकें। इससे ना केवल उन्हें रोजगार के अवसर मिलेंगे साथ ही वे समाज के साथ कदम से कदम मिलाकर चल सकेंगी.. पहले यही महिलाएं लालकिले के संडे बाज़ार में जा कर अपना सामान बेचती थीं लेकिन कार्ड नहीं होने की वजह से ये महिलायें स्वयं को उपेक्षित महसूस करती थीं। इन्हें पुरूषवादी मानसिकता का भी शिकार होना पड़ता था।
महिलाओं की इसी जायज़ मांग का खयाल करते हुए, दिल्ली सेवा ने महिला बाज़ार की रुपरेखा तैयार की। नगर निगम और दिल्ली सेवा की पहल ने रंग लाई और साल 2007 में इस बाज़ार की शुरुआत हुई। शुरूआती दिनों में इलाका काफी गंदा रहता था लेकिन दिल्ली सेवा की बदौलत आज यहां सैकड़ो की संख्या में महिलाएं अपनी दुकान लगाकर अच्छी खासी आमदनी कर रहीं हैं।
आरंभ में इस बाज़ार को सकुशल चलाने की बड़ी जिम्मेदारी थी,जिसे बखूबी अंजाम दिया सेवा दिल्ली की अध्यक्ष रेयानाबेन और संयोजक डॉ.. संजय कुमार सिंह ने। सेवा की फेरी पटरी कार्यक्रम की संयोजक नीलम बेन के मुताबिक हमारे पास लगभग 2000 हजार से अधिक महिलाओं की सूची थी लेकिन जगह की कमी के चलते लाटरी के जरिये केवल 200 महिलाओं का ही चयन किया गया। इनमें से 70रघुबीर नगर की बर्तन और कपड़े बेचने वाली, 70 महिलाएं सुंदर नगरी की जूते बेचने वाली और 30 जहांगीरपुरी की सब्जी बेचने वाली महिलाएं थीं। केवल रविवार के दिन लगने वाले इस बाज़ार में सभी महिलाओं को उनके ब्यवसाय के मुताबिक कार्ड दिए गए और उनकी जगह भी सुनिश्चित की गई।
शुरूआती दिनों में कोई ग्राहक यहां आना पसंद नहीं करता था इसके लिए सेवा दिल्ली की टीम ने दूर से आने-जाने वाली महिलाओं के लिए बस की व्यवस्था की।, इस बाज़ार में पीने का पानी और तेज धूप से बचाव के लिए तिरपाल का बंदोबस्त किया।
डॉ. संजय कुमार सिंह ने बताया कि यहां मनचले महिलाओं को परेशान ना करें इसके लिए हमने सुरक्षा गार्ड की तैनाती की साथ ही इसके प्रचार-प्रसार के तहत अभियान चलाकर लोंगों को जागरुक भी किया। बकौल संजय, आज आलम यह है कि यह बाज़ार आज महिलाओं की जरूरत बन गया हैं और महिलाएं यहां आने को बेताब रहती हैं। इसकी एक बड़ी वजह उनका आत्मसम्मान के साथ आत्मनिर्भर होना भी है।
बाज़ार में आने वाली महिलाओं से जब हमने बात की कि आखिर वह यहीं क्यों आती हैं, तो उनका जवाब था कि यहां वह अपने को सुरक्षित पाती हैं और बाकी जगह वे पुरुष व्यापारियों की अनदेखी और पुलिस वालों से जबरिया उगाही की शिकार होती हैं। इस महिला बाज़ार में उन्हें इस तरह की कोई परेशानी नहीं होती है और वे दिनभर अपनी दुकान लगाकर अपनी आजीविका चला रहीं हैं।
जब हमने यह जानने की कोशिश की कि अगर इस तरह का बाजार नहीं होता तो महिलाओं पर क्या फर्क पड़ता, उनका कहना था कि महीने में आने वाले हर रविवार को वह यहां से 8-10 हजार की कमाई करतीं हैं और इस पैसे से बच्चों की स्कूल फीस के अलावा रोजमर्रा की जरूरतें पूरी होती हैं। ऐसे में अगर ये बाज़ार ना हो तो उनके घर की दाल रोटी मुश्किल से चल पाएगी। कपड़े की दुकान लगाने वाली संगीता बताती हैं कि उनका पति काफी दिनो से बीमार चल रहा है और उनके परिवार की पूरी जिम्मेदारी उनके ही कंधों पर है। यहां वह पुराने कपड़े बेचकर अपना गुजर बसर कर रहीं हैं।
बाते दस सालों से सेवा के साथ काम करने वाली सावित्रि बताती हैं कि लालकिले पर लगने वाले बाज़ार के मुताबिक यहां की आमदनी थोड़ी कम है लेकिन यहां मिलने वाली सुविधाएं इसे दूसरे बाज़ारों से अलग करती हैं। उनके मुताबिक यहां पैसा भले थोड़ा कम मिले लेकिन पूरे सम्मान के साथ मिले इसे वह ज्यादा बेहतर मानती हैं।
बहुत सारी महिलाओं का कहना है कि यहां तहबाज़ारी और पुलिस के पचड़े से मुक्ति मिली है साथ ही समूह में महिलाओं के होने से उन्हें बल मिलता है और किसी बात की चिंता नहीं सताती.. बाज़ार में आए ग्राहकों से जब हमने बात की कि उन्हें यहां आकर कैसा महसूस हुआ तो उनका कहना था कि महिलाएं, महिलाओं से बात करके बेझिझक खरीदारी कर पातीं हैं। अगर वे कभी-कभार बाज़ार नहीं जा पाते तो उनके घर की महिलाएं बिना किसी डर भय के जरूरी सामानों को खरीद पाती हैं।
ऐसे में दिल्ली एनसीआर के इस पहले महिला बाज़ार की रौनक देखते ही बनती हैं। इस बाज़ार में आने वाली महिलाओं की तादाद को देखते हुए अगर इसी तरह के और बाज़ार लगाएं जाए तो निश्चित तौर से महिलाओं की भागीदारी और बढ़ेगी, साथ ही महिलाएं आने वाले दिनों में किसी पर निर्भर नहीं रहेंगी और समाज के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चल सकेंगी..