अंतिम संस्कार एक हक नारी का
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विनोद आर्यअंतिम संस्कार औरत नहीं कर सकती है। यह तथ्य मौजूदा सदी में अव्यावहारिक परंपरा मानी जा सकती है। भारतीय संस्कृति में किसी की मौत होने पर उसको मुखाग्नि मृतक का बेटा/भाई/ भतीजा/पति या पिता ही देता है। दूसरे लफ्जों में आमतौर पर पुरुष वर्ग ही इसे निभाता है। पुरुषप्रधान व्यवस्था का बेहतर उदाहरण भी इसे मान लीजिए और कहीं न कहीं नारी को कमजोर अहसास कराने वाली परंपरा भी।बीते एक दशक में इस व्यवस्था को चुनौती देने/व्यावहारिक बनाने वाली दर्जनों नजीरें इसी भारतीय परंपरागत व्यवस्था में सामने दिखीं।
सामाजिक, जातीय परंपरा के पक्षधरों के शुरुआती विरोध के बावजूद नारी ने अपने 'प्रियजन' की चिता को अग्नि दी और बाद में सराहना का पात्र भी बनी। एक माँ-बेटी, बहन-पत्नी तारणहार बने या न बनाई जाए इसके पीछे तर्क-वितर्क हो सकते हैं। लेकिन म.प्र. के इंदौर शहर की गुजराती वाणिक मीणा समाज के सक्रिय दम्पति कृष्णदास गुप्ता का उदाहरण लें। संतानहीन श्री कृष्णदास गुप्ता चल बसे। करीब तेरह बरस पहले हुई इस घटना में उनकी पत्नी ने बाकायदा हंडी उठाई, अपने पति को मुखाग्नि दी और कपालक्रिया की। ग्वालियर के परिवहन निगम के सेवानिवृत्त कर्मचारी श्री कृष्णकुमार चतुर्वेदी के परिवार में छः पुत्रियों के पिता श्री चतुर्वेदी का निधन हुआ। बीमार पिता की सेवा में जुटी शमा के सामने भी यही यक्ष-प्रश्न था कि मुखाग्नि कौन देगा? भतीजे, भानजों का इंतजार करते निढाल हो रही शमा ने यह धर्म निभाया।अब ऐसी खबरें सनसनी बनने की बजाए स्वीकारोक्ति बनना चाहिए। देशभर में ऐसी घटनाएँ चुनौती दे रही हैं। यहाँ सवाल उठता है कि इसे सनसनी, परंपरा का विरोध या फिर सामाजिक नियमों-कायदों का उल्लंघन क्यों मानें? जहाँ संतानहीन या पुत्रियाँ ही हों, वहाँ पुरुष नातेदारी की तलाश क्यों की जाए? यह ज्यादा बेहतर होगा कि नारी जगत का नातेदार इस परंपरा का वाहक बने। इसे माना ही जाएगा। बदलते परिदृश्य में इस प्रथा पर किसी तरह का बंधन नहीं होना चाहिए। हिन्दू परंपरा में बेटे द्वारा दी गई मुखाग्नि महत्वपूर्ण मानी जाती है। इसे मृतक की आत्मा की मुक्ति से जोड़ा गया। वहीं बेटे के एक पुण्य कर्म से। अब सवाल बनता है कि क्या इस पुण्य की हकदार बेटी नहीं बन सकती? रिश्ते में आत्मीयता का पैमाना नहीं होता है।
दरअसल समाज नारी-मन को कोमल मानते हुए श्मशानघाट पर ले जाना ही उचित नहीं समझता है, परंतु यह तस्वीर भी बदली है
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कानूनी अधिकारों में संपत्ति की उत्तराधिकारी बेटी बनी। अब यह भी धीरे-धीरे हो रहा है कि अंतिम संस्कार के पुण्य कर्म की भागीदार नारी बने। वह माँ-बाप, भाई-पति या परिवार को सहारा दे रही है। करोड़ों उदाहरण देशभर में और दर्जनों अपने घर के आसपास मिलेंगे। हर क्षेत्र में तरक्की के नए आयाम नारी जगत ने रचे और रच रही हैं। फिर इसी वर्ग को इस कार्य से वंचित नहीं रखा जा सकता है।
वेदपाठ कराती नारी इसी देश में है। धार्मिक ग्रंथों में नारी-सम्मान दर्शाया गया है। करीब बारह साल पहले वर्तमान राज्यसभा सदस्य हेमामालिनी की एक फिल्म 'इंदिरा' आई थी। नायिकाप्रधान इस फिल्म में किसी बेटे की तरह हेमा पूरे दायित्वों का निर्वाह करती हैं। आखिरी दृश्य में पिता की मृत्यु पर मुखाग्नि हेमा देती हैं। इस दौरान सामाजिक विरोध होता है। लेकिन इसको वे खारिज करती हैं एक सवाल उठाते हुए कि 'एक बेटी अंतिम संस्कार क्यों नहीं कर सकती है?'
दरअसल समाज नारी-मन को कोमल मानते हुए श्मशानघाट पर ले जाना ही उचित नहीं समझता है, परंतु यह तस्वीर भी बदली है। परिस्थितिवश नारी अपने प्रियजनों के आखिरी दर्शन के लिए मरघट पहुँचने लगी है। वैसे सार्वजनिक तौर पर या ऊँचे स्तर पर अंतिम संस्कार के मौके पर औरतों की मौजूदगी रहने लगी है। मसलन स्व. इंदिरा गाँधी या राजीव गाँधी के अंतिम संस्कार जैसे उदाहरण अनेक हैं। वास्तविकता यही है कि अंतिम संस्कार, जो एक धार्मिक क्रिया भी है, अगर कोई बेटी या पत्नी करती है तो इस पर आपत्ति की जगह प्रोत्साहन मिलना चाहिए। इसे व्यावहारिक बनाएँ और मानसिकता बदलें तभी परिवर्तन प्रभावी दिखेगा।