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अखिलेश श्रीराम बिल्लौरे
आज नारी की स्थिति का वर्णन अलग-अलग वर्गों में किया जा सकता है। कहीं पर वह सशक्त है, समर्थ है तो कहीं न तो समर्थ है न ही सशक्त परंतु सुखी है। शेष नारियाँ अधीन हैं। हाँ, पुरुषों के अधीन। वह स्वयं कोई निर्णय नहीं ले सकती या उसे इस योग्य माना ही नहीं जाता। अत: कहा जा सकता है कि वर्तमान में नारी तीन हिस्सों में बँटी हुई है। एक, उच्च वर्ग का प्रतिनिधित्व करती है, जिसे सशक्त नारी का दर्जा दिया जा सकता है। वह अपने हित, अपनी हैसियत, अपना लक्ष्य स्वयं तय करती है। यानी वह समर्थ है। उस पर पुरुष का कोई वश नहीं चलता। वह इरादों की पक्की है। आज जिस तरह से नारी की स्थिति को लेकर बताया जाता है वास्तव में ऐसा नहीं है। आज नारी में काफी बदलाव आ गया है। अब नारी महज रसोई तक सिमटी नहीं है, न ही वह भोग्या है। अब वह पुरुष से कहीं आगे निकल चुकी है। नारी का एक वर्ग ऐसा भी है जो संभ्रांत वर्ग की तो है लेकिन वह है परतंत्र। ऊपर से वह स्वतंत्र नजर आती है लेकिन अंदर-अंदर घुटन भरी जिंदगी जीने को विवश है। उसे किचन से लेकर ऑफिस तक हर जगह खपना पड़ता है। सुबह से पति के लिए नाश्ता, टिफिन, फिर बच्चों के लिए और देवर, सास-ससुर के लिए, फिर स्वयं के ऑफिस जाने की तैयारी- क्या-क्या नहीं करना पड़ता है उसे। ऐसी जिंदगी पहले से ज्यादा जटिल हो गई है। पहले तो सिर्फ घर की चहारदीवारी में ही कैद होकर रहना पड़ता था परंतु अब तो घर में घरवालों की सुनो ऑफिस में बॉस की।ऐसा सिर्फ एक जगह नहीं है महानगरों की व्यस्तता भरी जिंदगी में नारी को हर कदम फटकना पड़ता है। प्रतिस्पर्धा के दौर में, आधुनिक एशोआराम की चीजें घर में लाने के चक्कर में नारी को भी उतना ही खपना पड़ता है जितना पुरुष को।किराए के घर में रहने वाला दंपति हो तो घर लेने के लिए, घर ले लिया तो किस्त भरने, घर में आधुनिक जरूरत की सभी चीजों को सहेजने, बच्चों की फीस का इंतजाम करने- कहाँ नहीं खपना पड़ता। एक सामान्य पुरुष का वेतन इतना नहीं होता वह जमाने के साथ तालमेल बिठा सके। इस बात को अच्छी तरह समझते हुए नारी को भी काम ढूँढना पड़ता है। |
आज नारी की स्थिति का वर्णन अलग-अलग वर्गों में किया जा सकता है। कहीं पर वह सशक्त है, समर्थ है तो कहीं न तो समर्थ है न ही सशक्त परंतु सुखी है। शेष नारियाँ अधीन हैं। हाँ, पुरुषों के अधीन। उसे इस योग्य माना ही नहीं जाता। |
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इसके बाद नारी का निम्न वर्ग तो आज भी बहुत उपेक्षित है। कामवाली बाई हो या रोजनदारी का कार्य करने वाली- नारी को दिनभर मेहनत-मजदूरी करना पड़ती है। ऐसे निम्न वर्ग में पुरुष अधिकांशत: शराबी, जुआरी ही रहते हैं। घर में मदद तो दूर एक गिलास पानी मटके में से भरकर स्वयं नहीं पीते। फिर ऊपर से नारी को प्रताडि़त करना। मारना-पीटना आम बात है। रोज-रोज झगड़ा करना तो जैसे शगल बन गया है। झुग्गी झोपड़ी में तो और भी भयावह स्थिति है। कहीं-कहीं तो तन ढँकने के कपड़े तक नहीं है। पेट भर खाना जहाँ मुश्किल से मिलता हो वहाँ ऐशोआराम की बात बेमानी है।
दुनिया बहुत आगे निकल चुकी है लेकिन अधिकांश नारी के लिए तो वही चूल्हा-चौका है। आधुनिकता की दौड़ में कहीं-कहीं वह गलत कदम भी उठा लेती है, जिसमें अंत में पछताने के अलावा कुछ हाथ नहीं रहता।
नारी के प्रति अपराधों में भी कमी नहीं आ सकी है। वैसे घरेलू अपराध के लिए तो कहीं-कहीं वह स्वयं जिम्मेदार भी है। नारी ही नारी की दुश्मन बनी हुई है। उस पर अत्याचार नारी से शुरू होता है। यदि किसी एक घर में बहू प्रताडि़त होती है तो इसकी कहानी सास-ननद से शुरू होती है। यदि ये सास-ननद-बहू स्वयं समझें तो पुरुष की क्या मजाल जो इन पर अत्याचार कर सके। रहा सवाल घर में नारी के असुरक्षित रहने का तो नारियाँ पहले घर का वातावरण ऐसा मर्यादित बनाएँ कि पुरुष को हर समय अदब से रहने को मजबूर होना पड़े।
घर के बाहर नारी की बुरी स्थिति भी मेरे ख्याल से नारी के कारण ही है। हालाँकि पुरुष शतप्रतिशत अपराधी है, परंतु नारी को बाहर भी मर्यादित होकर रहना चाहिए। आचार-व्यवहार, पहनावा ऐसा होना चाहिए कि पुरुष की गंदी निगाहें उसके अंग पर नहीं टिके। कहीं-कहीं नारियों को पहनावा ऐसा लगता है मानो वे स्वयं पुरुष को आमंत्रित कर रही हों। इस स्थिति से बचना जरूरी है। आजकल की युवतियाँ टीवी पर आने वाले सीरियलों, दृश्यों का अनुसरण करने लग जाती हैं। तरह-तरह के लुभावने विज्ञापनों के बहकावे में आ जाती है।