नेहरूजी ने एक बार कहा था कि किसी भी देश की तरक्की का आकलन उस देश में महिलाओं की स्थिति को देखकर किया जा सकता है। लेकिन विकास के इस दौर में महिलाएँ कहीं पीछे छूट गईं। तकनीकी विकास ने प्रगति में तो उछाल दी लेकिन लोगों की मानसिकता को सँकरा और ठोस बना दिया। विश्व के दहाई में गिने जाने वाले देशों में ही यह अनुपात 1 से ज्यादा है, वरना हर देश में भारत जैसे ही हालात हैं। जिन देशो में इनके बढ़ने के बारे में बात की जाती है, वहाँ भी यह 1050/1000 या इसके आसपास है।
पिछले सौ सालों में स्त्री-पुरुष अनुपात में जबर्दस्त गिरावट आई है। इन गुम होती लड़कियों से कई विप्लव लाने वाले उदाहरण भी देखे जा सकते हैं। इन घटती संख्या का एक दु:खद पहलू यह भी है कि तरक्की की दौड़ में आगे रहने वाले राज्यों में भी स्थिति काफी विकट है।
पंजाब और हरियाणा विकास की दृष्टि और प्रति व्यक्ति आय के हिसाब से आगे हैं लेकिन इन राज्यों लिंगानुपात चिंताजनक रूप से कम है, जिसका खामियाजा यहाँ के लोगों को भी भुगतना पड़ रहा है। हरियाणा में यह अनुपात विश्व के किसी भी स्थान के लिंगानुपात में सबसे निचले क्रम पर है। वैसे इस गंदे रिकॉर्ड में पंजाब, गुजरात, महाराष्ट्र, दिल्ली और गोआ भी शामिल हैं।
दु:खद बात यह है कि जहाँ लोगों के जीवन स्तर और आय में सौ साल में हजार गुना से ज्यादा तेजी आई, वहीं स्त्री और पुरुष के अनुपात में सतत गिरावट दर्ज की गई। जहाँ 1901 में यह अनुपात 972 था, वह गिरकर 2001 में 933 हो गया और इस बात की पूरी आशंका है कि 2010 तक इसमें और भी गिरावट दर्ज हो जाएगी।
कहाँ गईं 50 हजार लड़कियाँ -
लिंगानुपात के साथ ही यह बात और उजागर होती है, वह है मृत्यु दर। उम्र के लिहाज से अगर बात की जाए तो आँकडे़ और भी चौंकाने वाले हैं। 0 से 6 वर्ष के अंतराल पर लिंगानुपात और भी निचले स्तर पर है। इससे स्थिति आईने की तरह साफ लगती है। पहला यह कि गर्भ में लड़की है, ऐसा मालूम होने पर उसे पहले ही नष्ट कर दिया जाता है या फिर छोटी उम्र में ही उचित देखभाल में कमी के कारण उनकी अकाल मौत हो जाती है।
वर्ष 2006 में जन्म के समय लिंगानुपात 953/1000 था। पंद्रह साल से कम उम्र पर लिंगानुपात 943/1000, 15 साल से 60 साल तक के लिए लिंगानुपात 934/1000 है। वहीं 65 साल से अधिक उम्र पर लिंगानुपात 980/1000 था।
वहीं जन्म होते ही बालिका शिशु मृत्यु-दर 54.05/1000 था, वैसे बालक शिशु मृत्यु-दर 55.18/1000 था। इस हाल में भी बच्चे की मौत का दंश माँ को ही झेलना पड़ता है। प्रसव के दौरान माता की मौत के मामले में भारत की स्थिति शर्मनाक है। कुछ वर्ष पहले तक एशिया में भारत मात्र नेपाल और बांग्लादेश से बेहतर स्थिति में था। उल्लेखनीय है कि देश की जनसंख्या विश्व की कुल जनसंख्या का 16 फीसदी है।
वहीं यहाँ पर प्रसव के दौरान माताओं के मरने का प्रतिशत पूरे विश्व के लिहाज से 20 फीसदी है। 1997 में भारत सरकार के जारी आँकड़ों के अनुसार देश में माता मृत्यु दर 408 थी (यह आँकड़ा प्रति 100000 जन्म पर लिया जाता है)। भारत के अलग-अलग राज्यों में भी इसमें काफी अंतर है। पूरी जनसंख्या के करीब आधे की जनसंख्या का प्रतिनिधित्व करने वाले राज्य- उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश, राजस्थान, उड़ीसा और बिहार में भी माता मृत्यु दर की खतरनाक स्थिति है। यह दर उड़ीसा में 739, उत्तरप्रदेश में 707, राजस्थान में 607, मध्यप्रदेश में 498, बिहार में 451 और उड़ीसा में 87 रही।
एक अनुमान के मुताबिक भारत में जन्म लेते ही 7 फीसदी बच्चे मर जाते हैं। इसके पीछे माता का बुरा स्वास्थ्य एक बड़ा कारण होता है। वहीं मौत के मामले में शहरी और ग्रामीण दोनों ही इलाकों में 0 से 14 साल तक की बच्चियों की मौत में वृद्धि हुई है। अच्छी स्वास्थ्य सेवाओं के दावे के बाद भी पूरे एशिया में शिशु मृत्यु दर के मामले में भारत बहुत पीछे है। इस मामले में भी उसकी स्थिति केवल नेपाल, बांग्लादेश और पाकिस्तान से बेहतर है।