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कर्म की क्यारी की तुलसी-गंध जैसी माँ

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- अजहर हाशमी
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स्नेह की निर्मल नदी-

निर्बंध जैसी माँ

कर्म की क्यारी की

तुलसी-गंध जैसी माँ

युग-युगों से दे रही

कुरबानियाँ खुद की

कुरबानियों से शाश्वत

अनुबंध जैसी माँ

जोड़ने में ही सदा

सबको लगी रहती

परिवार के रिश्तों

में सेतुबंध जैसी माँ

फर्ज के पर्वत को

उँगली पर उठाती है

कृष्ण-गोवर्धन के

इक संबंध जैसी माँ

सब्र की सूरत

वचन अपना निभाती है

भीष्म की न टूटती

सौगंध जैसी माँ

शाकंभरी, दुर्गा हो

या देवी महाकाली

अन्याय, अत्याचार

पर प्रतिबंध जैसी माँ

वो मदर मेरी, हलीमा हो

या पन्ना धाय

प्यार, सेवा, त्याग

के उपबंध जैसी माँ

माँ के पाँवों के तले

जन्नत कही जाती

भागवत के सात्विक

स्कंध जैसी माँ।

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