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आध्‍यात्‍मि‍क ज्ञान पर स्‍त्रियों की पकड़

प्रपंच और परमार्थ का अनूठा संगम

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- अरुंधती आमड़ेक

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दुनि‍या में हर घर, हर दि‍ल, हर परि‍वार, कुल मि‍लाकर कहें तो हर शख्‍़स कुछ ख़ास होता है लेकि‍न हर कि‍सी को उसकी पहचान नहीं मि‍ल पाती। चर्चा का वि‍षय तो सब होते हैं लेकि‍न चर्चा में आना सबके बस की बात नहीं है।

यूँ तो महि‍लाओं से जुड़े मुद्दों और घटनाओं को लेकर महि‍लाएँ हमेशा ही चर्चा का वि‍षय होती हैं पर महि‍ला दि‍वस पर चर्चाओं की बारंबारता कुछ बढ़ जाती है। जि‍सके बारे में आज मैं लि‍ख्नने जा रही हूँ, बहुत दि‍नों से महि‍लाओं के इस संगठन के बारे में लि‍खना चाह रही थी लेकि‍न संयोग आज बना है। इस संगठन के बारे में बहुत ज्‍यादा लोग नहीं जानते मैं नि‍जी तौर पर इससे जुड़ी हूँ इसलि‍ए मुझे आज इसके बारे में लि‍खना प्रासंगि‍क लगता है। वैसे भी इस संगठन को भी चर्चा में लाने का महि‍ला दि‍वस से अच्‍छा मौका और क्‍या हो सकता था।
मैं बार-बार इसे अपनी सहूलि‍यत के लि‍ए संगठन कह रही हूँ लेकि‍न वास्‍तव में ये कोई संगठन नहीं है। यहाँ वे लोग आते हैं जो मुमुक्षु हैं। मुमुक्षु अर्थात मोक्ष की इच्‍छा रखने वाला। आध्‍यात्मि‍क ज्ञान की सतत् गंगा यहाँ कई वर्षों से बह रही है, कि‍सी को पता नहीं कोई कब जुड़ जाता है और बहता हुए अपने असल कि‍नारे से लग जाता है।

भारत में धर्म आंदोलनों और धार्मि‍क संस्‍थाओं में सार्वजनि‍क रूप से महि‍लाओं की भागीदारी का प्रति‍शत काफी कम है। माता अमृतानंदमयी के अलावा शायद इस क्षेत्र में महि‍लाओं की उपस्‍थि‍ति‍ कहीं नहीं है। ऐसे में बलभीम भवन जैसे स्‍थान सुखद वि‍रोधाभास लगते हैं। यहाँ महि‍लाओं का दखल मंच के दोनों ओर है।

मैं इसकी चर्चा महि‍ला दि‍वस पर इसलि‍ए कर रही हूँ क्‍योंकि‍ यहाँ से जुड़े लोगों में महि‍लाओं की संख्‍या अधि‍क है या आप यह भी कह सकते हैं कि‍ यहाँ महि‍लाओं का वर्चस्‍व है। लेकि‍न यहाँ यह कहना गलत होगा क्‍योंकि‍ वर्चस्‍व तो यहाँ सि‍र्फ ज्ञान का है, बोध का है। हाँ, मुझे यहाँ एक बात अद्भुत लगती है कि‍ एक हजार वर्ग फीट के हॉल में एक 87 वर्षीय वृद्ध महि‍ला लगातार 3 घंटे खड़े रहकर लगभग 200 लोगों के सामने किसी आध्‍यात्‍मि‍क वि‍षय पर प्रवचन करती हैं और सभी लोग उन्‍हें ध्यान मग्‍न होकर सुनते हैं। कोई शोर शराबा नहीं कोई दूसरी आवाज नहीं। बोध से संबंधि‍त प्रश्नों के उत्तर भी तत्काल देती हैं। इस उम्र में ऐसा अभ्‍यास और उसका ध्‍यान वो भी इतने गंभीर वि‍षय का, ये वाकई चमत्‍कृत कर देने वाला लगता है।

यहाँ पर प्रवचनों का आधार शंकराचार्य का आध्‍यात्‍मि‍क उपदेश है। वर्ष में तीन उत्‍सवों के दौरान यहाँ दूर दूर से लोग आते हैं। बाकी दि‍न केवल स्‍थानीय लागों का ही जमावड़ा होता है। संचालन का पूरा कार्य महि‍लाएँ सँभालती हैं। यहाँ से जुड़ने वालों के अनुभव अनूठे हैं। वे बताते हैं कि‍ जब हमें यहाँ का बोध हुआ तो हमें लगा कि‍ हमने स्‍वयं को अब सही अर्थों में पहचाना है।

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संक्षि‍प्‍त परि‍चय

बलभीम भवन इंदौर के पलासि‍या क्षेत्र में है। इसकी नींव सन् 1909 में पड़ी। इसी की एक शाखा पुणे में वहाँ के गुरु भक्‍तों के लि‍ए 1937 में स्‍थापि‍त की गई। बलभीम भवन का नाम यहाँ के आदि‍ गुरु बलभीम महाराज के नाम पर रखा गया है। इससे पहले ये उनकी शि‍ष्‍या भगीरथी वैद्य का नि‍जी नि‍वास था लेकि‍न अपने गुरु के आदेशानुसार सत्‍संग और परमार्थ की परंपरा को आगे बढ़ाने के लि‍ए उन्‍होंने इसे समर्पि‍त कि‍या ताकि‍ ज्ञान पि‍पासुओं को एक आश्रय मि‍ल सके। भगीरथी वैद्य एक साधारण घरेलू महि‍ला थी लेकि‍न उन्‍होंने प्रपंच और परमार्थ अर्थात् आध्‍यात्‍मि‍क और व्‍यवहारि‍क जीवन में अद्धुभुत सामंजस्‍य बैठाया और इसी मंत्र को अपने शि‍ष्‍यों तक पहुँचाया, चूँकि‍ उनके शि‍ष्‍यों में स्त्री‍ वर्ग अधि‍क था इसलि‍ए उनका कहना था कि‍ आध्‍यात्‍मि‍क ज्ञान प्राप्त करने के लि‍ए वैराग्‍य धारण करना जरूरी नहीं है अपने सांसारि‍क नि‍यम धर्मों को नि‍भाते हुए भी आप आध्‍यात्‍म से जुड़ सकते हैं, ध्‍यान बस इतना रखना है, कि‍ 'मैं कौन हूँ' इसे न भूला जाए। यहाँ के शि‍ष्‍यों में 10 वर्ष से लेकर 90 वर्ष की आयु के लोग हैं।
गुरु शि‍ष्‍य परंपरा का अटूट श्रृद्धा से पालन करने वाले इस केंद्र का वि‍स्‍तार मध्‍यप्रदेश सहि‍त महाराष्ट्र और कर्नाटक के कई क्षेत्रों में भी है।

मैं तो अकेला ही चला था जानि‍बे मंजि‍ल की तलाश में
लोग आते गए और कारवाँ बनता गया

यही कहानी बलभीम भवन की है। शुरुआत एक व्‍यक्ति‍ से हुई थी और अब यह संख्‍या हजारों में है। कभी यहाँ की पब्‍लि‍सि‍टी नहीं हुई, ऐसा नहीं कि‍ मौके नहीं मि‍ले वास्‍तव में यह स्‍थान इन चीजों को जरूरी नहीं मानता। शुरुआत एक व्‍यक्ति‍ से हुई थी और अब यह संख्‍या हजारों में है। मैं इसके बारे में यहाँ अपने व्‍यक्ति‍गत संस्‍मरण के तौर पर लि‍ख रही हूँ। वरना ज्ञान के अलावा और कि‍सी दूसरे वि‍चार की यहाँ बात नहीं होती।

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