Select Your Language

Notifications

webdunia
webdunia
webdunia
webdunia
Advertiesment

आजाद महिला ‍की आजादी

महिला दिवस विशेष

हमें फॉलो करें आजाद महिला ‍की आजादी
सपना बाजपेई मिश्रा
ND
महिलाओं के बदले हुए रूप को अगर आजादी का नाम दिया जा रहा है तो इसके भी कुछ अपने ही तर्क हैं। इनमें सबसे पहले आती है महिलाओं की विकसित होती तर्क-क्षमता। दो दशक पहले की तुलना में आज की महिलाएँ शिक्षा के प्रति कहीं ज्यादा जागरूक हैं। महिलाओं में शिक्षा का स्तर बढ़ने से उनके सोचने-समझने की क्षमता का भी विकास हुआ है।

इस विकास ने ही उन्हें दीन-दुनिया की जानकारी दी व खुद के लिए सोचने की समझ विकसित की है। समाज महिलाओं की इसी समझ को उनकी आजादी का नाम देता है। महिलाओं को आजादी की पाठशाला में प्रवेश दिलाने के लिए शिक्षा ही प्रथम अध्याय माना जा सकता है लेकिन इस अध्याय तक कितने प्रश महिलाएँ पहुँच पाती हैं, यह प्रश्न वाकई विचारणीय है।

असल में महिलाओं के विकास के नाम पर हमारी नजर सिर्फ उन शहरी महिलाओं पर रुकती है, जो आधुनिकता के बंधन में तरक्की की सीढ़ियाँ चढ़ रही हैं जबकि असल भारत तो उन छोटे व मझौले शहरों, कस्बों व ग्रामीण क्षेत्रों में बसता है जहाँ अभी ऐसी स्थिति नहीं है। इन इलाकों में देश की 60 फीसद महिलाएँ रहती हैं जिन्हें विकास की परिभाषा तक मालूम नहीं। शिक्षा के नाम पर इन महिलाओं में से शायद कुछ ही कॉलेज क्या, स्कूल तक पहुँची हों।

दीन-दुनिया की जानकारी से दूर इन्हें सिर्फ दो वक्त का भोजन बनाने और घर के सदस्यों की देखभाल करने के अलावा और कुछ भी नहीं मालूम। क्या देश की महिलाओं का यह तबका विकासशील भारत की आजाद महिलाओं को प्रदर्शित नहीं करता और अगर करता है तो इनकी दशा आज भी कई दशकों पहले जैसी ही क्यों है? देश में महिलाओं की एक बड़ी आबादी को एक सामान्य जीवनशैली जीने वाली शहरी महिला जैसी सहूलियत भी उपलब्ध नहीं है।

आजाद भारत की आजाद महिलाओं को क्या वाकई आजादी के सही मायने पता हैं? क्या वे इसके फायदे और नुकसान से भली-भाँति परिचित हैं? या महज घर से बाहर निकलकर कई भूमिकाएँ निभाना मात्र ही उनके लिए आजाद ख्याल का होना है! सामाजिक बंधनों, मान्यताओं और सोच के स्तर पर महिलाओं को आज तक आजादी नहीं मिल सकी है।

भले ही वह घर हो या बाहर, हर जगह महिलाओं पर बंदिशें लगाने व उन्हें कमजोर साबित करने वालों की कमी नहीं है। बड़ी बात यह है कि महिलाओं को उनकी कमजोरी का एहसास कराकर उन्हें पीछे धकेलने में कई बार उनके अपनों का ही योगदान होता है। हालाँकि महिलाओं की आजादी के पैरोकार यह दावा करते कि अब समाज का एक बड़ा वर्ग महिलाओं को हर प्रकार की आजादी देता है, वे अपनी पसंद के क्षेत्र में करियर बना सकती हैं और अपनी मर्जी के अनुसार जीवनसाथी का चुनाव भी कर सकती हैं। अब इसे आजादी नहीं तो और क्या कहेंगे? पर सवाल यह है कि मात्र कुछ बातों के आधार पर महिलाओं की आजादी को तर्कसंगत माना जा सकता है? शायद नहीं।

आजादी के असल मायने तो तब समझ में आते हैं जब समाज हर क्षेत्र में महिलाओं को बराबरी का अधिकार दें तथा पूरे देश में हर तबके की महिलाओं को एक ही प्रकार की सुविधाएँ और अधिकार हासिल हों। इससे भी बड़ी बात यह है कि महिलाएँ और पुरुष तब बराबर माने जाएँगे, जब पुरुष भी खुशी-खुशी महिलाओं की दुनिया में हिस्सेदारी करना चाहे। जब तक यह मानसिकता नहीं पैदा होती सुपर वुमन की किताब महिलाओं को बरगलाने का जरिया भर है।

अगर वाकई औरत और आदमी समानता की सरजमीं पर खड़े होते और आज 20 प्रश महिलाएँ उद्योग और कारोबार की दुनिया में अपनी भूमिका अदा कर रही हैं तो कम से कम इससे आधे पुरुष तो उस दुनिया की जिम्मेदारी उठा रहे होते जिसे आधी दुनिया की निजी पूरी दुनिया मान लिया जाता है।

आज भी बच्चे और रसोई औरतों की ही दुनिया बने हुए हैं चाहे जितनी बराबरी और स्त्री-पुरुष समानता की दुहाइयाँ दी जा रही हों। 90 प्रश आधुनिक और आजाद महिला घर पहुँचते ही रसोई में घुसती हैं, मगर 2 प्रश साधारण पुरुष भी ऐसा नहीं करते। क्या आजादी के नाम पर यह महिलाओं को और ज्यादा बोझ व जिम्मेदारियों से लादने का बहाना नहीं है?

Share this Story:

Follow Webdunia Hindi