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कब तक सहेंगे विषमता का जहर

महिला दिवस विशेष

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हाल ही में 'भारत लिंग भेदभाव समीक्षा 2009' की रिपोर्ट को जारी किया गया, जिसमें इस तथ्य को उद्घाटित किया गया कि भारत लिंग जनित विश्व आर्थिक मंच की 134 देशों की सूची में 114वें स्थान पर है। विकास के मामले में दक्षिण अफ्रीका, नेपाल, बांग्लादेश एवं श्रीलंका भले ही भारत से पीछे हों, परंतु स्त्रियों और पुरुषों के बीच असमानता की सूची में इनकी स्थिति भारत से बेहतर है।

गाँवों और शहरों दोनों ही स्थानों में महिलाएँ स्वतंत्रता के छह दशक बीत जाने के बावजूद भी दोयम दर्जे की नागरिकता पा रही हैं। इस सभ्यता को देश की राष्ट्रपति श्रीमती पाटिल ने भी स्वीकार किया है। उनके अनुसार 'आजादी के बाद देश में महिलाओं का काफी विकास हुआ, लेकिन लैंगिक असमानता के क्षेत्र में अभी बहुत कुछ किया जाना बाकी है।'

चंद महिलाओं की उपलब्धियों पर पीठ थपथपाता भारत इस सत्य को स्वीकार करेगा कि भारतीय महिलाएँ न केवल दफ्तर में भेदभाव का शिकार होती हैं, बल्कि इसके साथ ही साथ कई बार उन्हें यौन शोषण का भी शिकार होना पड़ता है। देश में महिलाओं को न तो काम के बेहतर अवसर मिलते हैं और न ही पदोन्नति के समान अवसर। जो महिलाएँ नौकरी पा भी गईं वे भी शीर्ष पदों तक नहीं पहुँच पातीं महज 3.3 प्रतिशत महिलाएँ ही शीर्ष पदों तक उपस्थिति दर्ज करा पाती हैं।

'समान कार्य के समान वेतन' की नीति सिर्फ कागजों तक ही सीमित है। श्रम मंत्रालय से मिले आंकड़ों से पता चलता है कि कृषि क्षेत्र में स्त्री और पुरुषों को मिलने वाली मजदूरी में 27.6 प्रतिशत का अंतर है। दुर्भाग्य की बात तो यह है कि झाड़ू लगाने जैसे अकुशल काम में स्त्री और पुरुष श्रामिक में भेदभाव किया जाता है।

महिला आर्थिक गतिविधि दर (एफईएआर) भी केवल 42.5 प्रतिशत है, जबकि चीन में यह दर 72.4 प्रतिशत और नॉर्वे में 60.3 प्रतिशत है। वैश्विक आकलन से पता चलता है कि विश्व के कुल उत्पादन में करीब 16 ट्रिलियन (160 खरब) डॉलर का अदृश्य योगदान देखभाल (केयर) अर्थव्यवस्था से होता है और इसमें से भारत की महिलाओं का मुद्रा में परिवर्तनीय और अदृश्य योगदान 11 ट्रिलियन (110 खरब) डॉलर का है।

यूनीसेफ की रिपोर्ट यह सुनिश्चित करती है कि महिलाएँ नागरिक प्रशासन में भागीदारी करने में सक्षम हैं। यही नहीं वे महिलाओं और बच्चों के जीवन को बेहतर बनाने के लिए सभी तरीकों का निश्चित प्रयोग करती हैं और यह पूर्णतया सत्य है कि महिलाओं के सही प्रतिनिधित्व के बगैर किसी भी क्षेत्र में काम ठीक से और सौहार्द्र के साथ नहीं हो सकता परंतु आज भी राजनीति पर महिलाओं का असर नाममात्र का है। विभिन्न देशों में महिलाओं के संसद में प्रतिनिधित्व के संबंध में जारी की गई इंटर पार्लियामेंटरी यूनियन में भारतीय संसद में पुरुषों के 92 प्रतिशत की तुलना में महिलाओं का प्रतिशत मात्र 8 है।

भारत में महिला संवेदी सूचकांक लगभग 0.5 है, जोकि यह स्पष्ट करता है कि महिलाएँ मानव विकास की समग्र उपलब्धियों से दोहरे तौर पर वंचित हैं। विकसित देशों में प्रतिलाख प्रसव पर 16-17 की मातृ मृत्यु दर की तुलना में भारत में 540 की मातृ मृत्यु दर, स्वास्थ्य रक्षा और पोषक आहार सुविधाओं में ढाँचागत कमियों की ओर इशारा करती है। देश का सबसे दुःखद पहलू तो यह है कि यहां जन्म से पूर्व ही लिंग के प्रति भेदभाव आरंभ हो जाता है।

भारत में बालिका भ्रूण हत्या के संदर्भ मे नोबेल पुरस्कार विजेता अमर्त्य सेन ने इस चिंता से सहमति जताई है कि इस कुप्रथा के चलते देश में ढाई करोड़ बच्चियाँ जन्म से पूर्व ही गुम हो गईं। यही नहीं, डब्ल्यूईएफ ने बच्चियों के स्वास्थ्य और जीवन प्रत्याशा के आँकड़ों के हिसाब से भी पुरुष-महिला समानता की सूची में निम्नतम पायदान पर पाया है। विश्व अर्थिक मंच की रिपोर्ट में कहा गया है कि स्वास्थ्य और जीवित रहने जैसे मसलों में पुरुष और महिलाओं के बीच लगातार अंतर बना हुआ है। समीक्षा में कहा गया है कि हर दिन बच्चों को जन्म देते समय या इससे जुड़ी वजहों से तीन सौ भारतीय महिलाओं की मौत होती है।

यह निर्विवादित सत्य है कि स्त्रियों की स्थिति में आमूलचूल परिवर्तन हो सकता है अगर वह 'शिक्षित' बनें, परंतु आज भी भारत का एक बड़ा वर्ग यह विश्वास करता है कि शिक्षा से स्त्री का कोई सरोकार नहीं होना चाहिए, क्योंकि स्त्री की सीमा पार की चारदीवारी ही है और इसका परिणाम है शिक्षा के क्षेत्र में लड़कों के 73 प्रतिशत की तुलना में लड़कियों का प्रतिशत 48 है।

जीवन के मूलभूत अधिकारों से वंचित देश की महिलाएँ अनवरत रूप से असमानताओं के देश झेल रही हैं। 'जब स्त्रियाँ आगे बढ़ती हैं तो परिवार आगे बढ़ते हैं, गाँव आगे बढ़ते हैं और राष्ट्र भी अग्रसर होता है' - हमारे देश के सामाजिक आर्थिक विकास की समूची अवधारणा का मूल आधार पंडित जवाहरलाल नेहरू के ये शब्द रहे हैं पर क्या हम वाकई इस तथ्य को आत्मसात कर पाए हैं?

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