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महिला दिवस के सौ साल पूरे

सौ ‍साल चले अढ़ाई कोस

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महिलाओं के लिए समानता के बारे में बड़े बड़े दावे किए जाते हैं लेकिन समानता की बात तो दूर, यह आधी आबादी आज तक अपने बुनियादी अधिकारों से वंचित है और इन्हें पाने के लिए आवाज खुद उसे ही उठानी होगी।

सामाजिक कार्यकर्ता नफीसा अली कहती हैं,' महिलाओं के लिए समान अधिकारों की बातें आज भी सपना हैं। उनके लिए जिम्मेदारी यह कह कर बढ़ा दी गई कि स्त्री पुरूष दोनों ही बराबर हैं। लेकिन यह कोई नहीं देखता कि उनको दोहरी जिम्मेदारी का निर्वाह करना पड़ रहा है।' वह कहती हैं 'महिलाएँ नौकरी कर रही हैं। लेकिन घरों में उनके लिए कितनी सुविधाएँ दी जाती हैं। घर के काम से यह कह कर उन्हें मुक्ति नहीं दी जाती कि घर की जिम्मेदारी महिलाओं को ही पूरी करनी है। इसके बाद का समय वह नौकरी के लिए देती हैं। उनके पास आराम, स्वास्थ्य से लेकर भविष्य की योजनाओं के लिए समय नहीं होता। अपना ही वेतन जोड़जोड़ कर अगर वह मकान खरीदना चाहें तो पहले उन्हें इसके लिए घर वालों की अनुमति लेनी होती है।'

इस साल आठ मार्च को महिला दिवस के सौ साल पूरे हो रहे हैं। वूमन पॉवर कनेक्ट की अध्यक्ष रंजना कुमारी कहती हैं 'सौ साल हों या इससे अधिक समय हो, मानसिकता में बदलाव बहुत जरूरी है अन्यथा महिला दिवस अर्थहीन होगा।'

रंजना कहती हैं,' विज्ञान के इस दौर में भी लड़कियों को बोझ माना जाता है और आए दिन उन्हें गर्भ में ही समाप्त कर देने के मामले सुनाई देते हैं। हर कदम पर लड़कियाँ खुद को साबित करती आ रही हैं फिर भी उन्हें लेकर सामाजिक सोच में बहुत ज्यादा बदलाव नहीं आया है। दिक्कत यह है कि महिला पर इतना दबाव डाला जाता है कि वह गर्भपात के लिए मजबूर हो जाती है।'

'निर्णय लेने की प्रक्रिया में महिलाओं की भागीदारी जब तक नहीं होगी, बालिका भ्रूण हत्या का सिलसिला जारी रहेगा। बालिका भ्रूण हत्या कानूनन अपराध है लेकिन ऐसे कई मामले कानून की नजर में नहीं आ पाते। गर्भ में पल रहे बच्चे का लिंग परीक्षण करना भी अपराध है लेकिन ढके छिपे यह हो रहा है। बालिका भ्रूण हत्या के खिलाफ आवाज महिलाओं को ही उठानी होगी।'

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जब शिक्षा की बात आती है तो घरों में लड़कों को उनकी इच्छानुसार पढ़ाई करने की आजादी होती है। लेकिन लड़कियों के लिए कहा जाता है कि इन्हें तो दूसरे घर जाना है। बड़े शहरों में स्थिति थोड़ी बदली है लेकिन छोटे शहरों में आज कितनी लड़कियाँ मेडिकल का व्यवसाय चुन कर डॉक्टर बन पाती हैं। उनके अभिभावक उनकी पढ़ाई का महँगा खर्च उठाना ही नहीं चाहते।' यह स्थिति तब है जब हर कदम पर लड़कियाँ खुद को साबित करती आई हैं। महत्व साबित करने की बात भी छोड़िए, नारी और पुरूष सृष्टि के दो अभिन्न हिस्से हैं। इनके बिना जीवन की कल्पना कैसे की जा सकती है। फिर भी बालिका भ्रूण हत्या के लिए दबाव डालने वालों में महिलाएँ भी शामिल होती हैं। वह यह नहीं सोचतीं कि सृष्टि को आगे बढ़ाने वाली नारी को इस दुनिया में आने से कैसे रोका जा सकता है।'

मुस्कान प्रोडक्शन की निदेशक डॉ. लवलीन थडानी कहती हैं 'माता पिता को चाहिए कि अपने घर का माहौल ऐसा रखें कि उनकी बेटियों को उनके अधिकारों की जानकारी मिल सके। उन्हें इतनी आत्मविश्वासी और आत्मनिर्भर बनाएँ कि बेटियां अपने फैसले खुद ले सकें।'

लवलीन कहती हैं 'स्कूल और कॉलेज की शिक्षा के साथ साथ पारिवारिक शिक्षा भी महत्वपूर्ण होती है। बेटियाँ अगर अपनी माँ की दृढ़ता महसूस करेंगी तो वह भी खुद को माँ जैसा ही बनाने की कोशिश करेंगी और निर्णय लेने की प्रक्रिया में अपनी भागीदारी का महत्व समझेंगी। पहली पाठशाला तो माँ ही होती है।' रंजना कुमारी ने कहा कि महिला को स्वयं ही अपने अधिकारों के लिए आवाज उठानी होगी। उसे खुल कर सही या गलत का फैसला करना होगा।

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