गुजरात...रंगबिरंगी संस्कृति से सराबोर इस प्रदेश के नाम के साथ याद आता है गरबा, सुंदर-सजीले कांच और कौड़ियों के हैंडीक्राफ़्ट, मीठे मुस्कुराते लोग.....लेकिन महिला दिवस के पहले पिछले दिनों जिन दो घटनाओं ने दस्तक दी.....उसे पढ़ सुनकर कलेजा कांप उठा.... ग्रीष्मा...सूरत की इस खूबसूरत सी निर्दोष लड़की की एक सिरफिरे ने गर्दन काट दी और मामला था एकतरफा प्यार का....
20 साल का आरोपी फेनिल पंकज गोयाणी ग्रीष्मा के पीछे साल भर से लगा था....प्रेम में असफल होने पर उसने उसे ही मार डाला जिसे वह कथित रूप से प्यार करता था....कटर से परिवार वालों के सामने गर्दन काट दी... 'प्यार' का यह वहशियाना रूप देखकर हर कोई सदमे में आ गया ....इस घटना से सभी दहशत में ही थे कि ऐसी ही एक और घटना गुजरात में सामने आई जिसमें दीवानेपन की अति में ठीक उसी तरह लड़की की गर्दन पर वार कर दिया गया जैसे ग्रीष्मा के साथ हुआ....बिल्कुल वैसे ही...
पहला मामला पासोदरा गांव का है। आरोपी 12 फरवरी की शाम करीब 6 बजे लड़की से मिलने उसके घर पहुंचा। और लड़की को पकड़कर उसका गला रेत दिया। एकतरफा प्यार में हुई इन वारदात ने गुजरात की सुरक्षा के साथ पूरे देश में महिलाओं की स्थिति पर सवालिया निशान लगा दिए हैं...
महिला दिवस की चौखट पर खड़े जब हम 3 बड़े सवालों सेहत, सुरक्षा और स्वतंत्रता से रूबरू होते हैं तो हमारे सामने एक बड़ा सा शून्य नजर आता है और फिर सब धुंधला हो जाता है....
फिलहाल इन घटनाओं के मद्देनजर सुरक्षा पर बात करें तो हमें कई फैक्टर्स पर अपनी नजर डालना होगी..हमारे परिवेश में आ रहा खुलापन,सोशल मीडिया की अति,वेबसीरिज पर परोसी जा रही अश्लीलता, नशा,असहनशीलता और इनसे भी बड़ी बात व्यक्तिगत स्वार्थ के चलते मरती संवेदनशीलता,बुझती हुई मानवीयता और भावनात्मक आवेगों पर खोता नियंत्रण....
आप खुद ही सोचिए कि किसी लड़की के प्रेम प्रस्ताव को ठुकराने मात्र का नतीजा जहां गलाकाट देना हो वहां खौफ की स्थिति क्या होना चाहिए....जिंदगी फिर पटरी पर आ ही जाती है लेकिन प्रश्न यह कि जब एक घटना में हम लड़की को मारे जाने से ज्यादा उसके मारे जाने के तरीके को प्रचारित,प्रसारित कर रहे हैं वहां उसी घटना की वैसी ही पुनरावृत्ति तो होनी ही थी..नकारात्मकता जल्दी और ज्यादा आकर्षित करती है....
फिल्मों के अभिनेता जहां अभिनेत्री को वस्तु समझ उठा लेने की बात करते हो, वेबबसीरिज जहां गालियां परोस रही हो, नग्नता और अश्लीलता से जहां सोशल मीडिया के मंच सजे हो वहां आप कैसे उम्मीद कर सकते हैं कि कोई निर्दोष ग्रीष्मा अपने देश की सरजमीं पर अपने पूरे वजूद के साथ अपनी पसंद-नापसंद को जाहिर कर सके....
कई सारी ग्रीष्मा अपने-अपने दायरे में भयाक्रांत छटपटा रही हैं,कहीं मानसिक तनाव उन पर हावी है तो कहीं शिक्षा को बीच में छोड़ देने का दबाव उन पर भारी है,कहीं वे आत्महत्या को मजबूर हैं तो कहीं उनकी अपनी गर्दन कट जाने को विवश है....
क्या हम महिला दिवस पर अपने घरों में जाने-अनजाने भय को झेल रही ग्रीष्मा को इतना खुला माहौल दे रहे हैं कि वे हमसे हर बात, हर डर शेयर कर सके?
क्या हम अपनी बच्चियों को उतना साहस दे रहे हैं कि वे अपनी इन अनचाही झंझटों से निपट सके? क्या हम अपने घरों की बालिकाओं की सजल और सहमी आंखें पढ़ पाने में सक्षम हैं? सवाल सिर्फ इसलिए कि जवाब सही होंगे तो ही तो महिला दिवस की सार्थकता है....