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विश्व योग दिवस : मानव और प्रकृति के मध्य समन्वय ही योग है...

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सुशील कुमार शर्मा

महर्षि पतंजलि के अनुसार - ‘अभ्यास-वैराग्य द्वारा चित्त की वृत्तियों पर नियंत्रण करना ही योग है।' 


 
विष्णु पुराण के अनुसार- ‘जीवात्मा तथा परमात्मा का पूर्णतया मिलन ही योग; अद्वेतानुभूति योग कहलाता है।'
 
भगवद्गीताबोध के अनुसार- ‘दुःख-सुख, पाप-पुण्य, शत्रु-मित्र, शीत-उष्ण आदि द्वन्दों से अतीत; मुक्त होकर सर्वत्र समभाव से व्यवहार करना ही योग है।'
 
सांख्य के अनुसार- ‘पुरुष एवं प्रकृति के पार्थक्य को स्थापित कर पुरुष का स्वतः के शुद्ध रूप में अवस्थित होना ही योग है।
 
योग शब्द, संस्कृत शब्द 'योक' से व्युत्पन्न है जिसका का मतलब एक साथ शामिल होना है। मूलतः इसका मतलब संघ से है। मन के नियंत्रण से ही योग मार्ग में आगे बढ़ा जा सकता है। मन क्या है? इसके विषय में दार्शनिकों ने अपने-अपने मत दिए हैं तथा मन को अन्तःकरण के अंतर्गत स्थान दिया है। मन को नियंत्रण करने की विभिन्न योग प्रणालियां विभिन्न दार्शनिकों ने बतलाई हैं।

मनुष्य की सभी मानसिक बुराइयों को दूर करना का एक मात्र उपाय अष्टांग योग है। राजयोग के अंतर्गत महर्षि पतंजलि ने अष्टांग को इस प्रकार बताया है। 
 
यमनियमासनप्राणायामप्रत्याहारधारणाध्यानसमाधयोऽष्टाङ्गानि।
 
1. यम (पांच 'परिहार') : अहिंसा, झूठ नहीं बोलना, गैर लोभ, गैर विषयासक्ति और गैर स्वामिगत। 
 
2. नियम (पांच 'धार्मिक क्रिया'): पवित्रता, संतुष्टि, तपस्या, अध्ययन और भगवान को आत्मसमर्पण। 
 
3. आसन: मूलार्थक अर्थ 'बैठने का आसन' और पतंजलि सूत्र में ध्यान। 
 
4. प्राणायाम ('सांस को स्थगित रखना'): प्राणा, सांस, 'अयामा', को नियंत्रित करना या बंद करना। साथ ही जीवन शक्ति को नियंत्रण करने की व्याख्या की गई है।
 
5. प्रत्यहार ('अमूर्त'): बाहरी वस्तुओं से भावना अंगों के प्रत्याहार। 
 
6. धारणा ('एकाग्रता'): एक ही लक्ष्य पर ध्यान लगाना। 
 
7. ध्यान ('ध्यान'): ध्यान की वस्तु की प्रकृति गहन चिंतन।
 
8. समाधि ('विमुक्ति'): ध्यान के वस्तु को चैतन्य के साथ विलय करना। इसके दो प्रकार है - सविकल्प और अविकल्प। अविकल्प समाधि में संसार में वापस आने का कोई मार्ग या व्यवस्था नहीं होती। यह योग पद्धति की चरम अवस्था है।)

 

वर्तमान समय में योग द्वारा मन को नियंत्रण में करते हुए व मानसिक आरोग्यता प्राप्त करते हुए ही हम आध्यात्मिकता एवं समृद्धि को प्राप्त कर सकते हैं तथा आध्यात्मिकता समृद्धि; में ही हमें मानसिक आरोग्यता प्राप्त होती है यह सर्वविदित है। भूमण्डलीकरण, कम्प्यूटरीकरण, अभूतपूर्व तीव्र आवागमन एवं संदेशवाहन, जनसंख्या वृद्धि की तीव्र गति, सूचना प्रौद्योगिकी के अभूतपूर्व विकास एवं विश्व स्तर पर मानव अन्तरक्रिया के वर्तमान युग में मनुष्यों में तनाव का स्तर तेजी से बढ़ा है और मानसिक आरोग्य बनाए रखना कठिन हो गया है। 

पाश्चात्य मनोचिकित्सा के क्षेत्र में नए-नए विकास होने के साथ पूरब और पश्चिम में सब कहीं विचारकों और चिकित्सकों ने योग द्वारा मानसिक आरोग्य की सम्भावनाएं खोजने का प्रयास किया है। भावातीत ध्यान योग का पश्चिम में इस क्षेत्र में भारी स्वागत किया गया है। प्रचार के अभाव में भारत की विभिन्न योग प्रणालियों एवं श्री अरविन्द के योग समन्वय के विषय में पश्चिम में अभी अधिक जानकारी नहीं हैं फिर भी सभी प्रकार की योग प्रणालियों, विशेषतया हठयोग के आश्चर्यजनक परिणाम सामने आए हैं। विभिन्न योग प्रणालियों द्वारा तुलनात्मक समीक्षा का अभी अभाव है।
 
योग से मानसिक आरोग्यता :- 
 
फ्रायड के मतानुसार ‘मन के उपकरण के तीन घटक इदम्, अहम्, परम्, अहम् है। इन तीनों घटकों में होने वाले असंतुलन के परिणामस्वरूप ‘असामान्यता' का उद्भव होता है। योग द्वारा मानसिक आरोग्य: ‘योग' संकल्पना की जड़ मूल रूप से भारतीय विचारधारा से आई है जबकि पश्चिमी विचारधारा के मूल में मानसिक आरोग्यता की संकल्पना रही है। भारतीय विचारधारा में ‘मन' की विभिन्न अवस्थाओं- मूढ, क्षिप्त, विक्षिप्त, एकाग्र, निरूद्व आदि का उल्लेख मिलता है। महर्षि पतंजलि ने योगदर्शन के अंतर्गत अष्टांग योग में समाधि का वर्णन किया है। इसलिए समाधि, मुक्ति, निर्वाण, आत्म साक्षात्कार, भगवद प्राप्ति की अवस्था में व्यक्ति मानसिक रूप से आरोग्यता प्राप्त करता है।
 
भारतीय विचारधारा में स्वस्थ मन के लिए विभिन्न साधन बताने पर भी मानसिक आरोग्यता जैसी स्वतन्त्र संकल्पना भारतीय विचारधारा में न आने का कारण यह है कि भारतीय विचारधारा में व्यक्तित्व को सदैव समग्र रूप से लिया गया है न कि उसके विभिन्न पहलुओं पर अलग-अलग रूप से विचार किया गया है। योग शब्द जिस धातु से निष्पन्न हुआ है, वह पाणिनीय व्याकरणानुसार, दिवादी, रूधादि एवं चुरादि तीनों गुणों में प्राप्त होता है।

'युजर समाधौ; दिवादिगणद्ध, युज संयमने; चुरादिगणद्ध, युजिर् योगे; रूधादिगणद्ध।' युज धातु से व्युत्पन्न होने वाला योग भी पुल्लिंग में प्रयुक्त होने पर समाधि अर्थ का वाचक है परन्तु नपुंसकलिंग में प्रयुक्त होने पर योग-शास्त्र रूप अर्थ का ज्ञापक है। महर्षि व्यास ने भी योग का अर्थ समाधि बतलाया है। इस प्रकार गण भेद से योग शब्द के प्रमुख अर्थ समाधि, संयोग तथा संयमन होता है। 
 
मानसिक आरोग्य कहां तक प्राप्त किया जा सकता है, इस विषय पर आज योग को जीवन जीने की एक कला व विज्ञान के साथ-साथ औषधि रहित चिकित्सा पद्धति के रूप में लोकप्रियता मिल रही है। योग का नियमित अभ्यास हमारे अंदर समता, समभाव और सौहार्द को बढ़ाता है और हमें आपस में जोड़ता है। योग का लक्ष्य रोगों की रोकथाम करने के अलावा लोगों को भौतिक, मानसिक, सामाजिक, आध्यात्मिक और भावनात्मक स्तर पर सम्पूर्ण स्वास्थ्य प्रदान करना भी है।

कर्मयोग, ध्यानयोग और भक्तियोग :- 
 
तत्वदर्शी ऋषियों ने सर्व साधारण के लिए- जिस सामान्य स्तर की साधना पद्धति का निर्देश किया है उसे ही कर्म योग ज्ञान और भक्ति-योग की त्रिवेणी कहते हैं। हर दिन नया जन्म हर रात नई मौत की विचारणा हमें इस बात के लिए प्रेरित करती है कि आज का दिन एक अनुपम सौभाग्य माना जाए और उसका श्रेष्ठतम सदुपयोग किया जाए। यही कर्म योग की आधार शिला है।

सूक्ष्म शरीर का विकास करने के लिए मानसिक स्तर को परिष्कृत करने के लिए- ज्ञान योग की साधना है। उत्कृष्ट विचारों का मन में भरे रहना उसमें ईश्वर की भावनात्मक प्रतिमा प्रतिष्ठापित किए रहना ही है। ईश्वरीय सत्ता से -प्राणि मात्र से अनन्य आत्मीयता भरा प्रेम सम्बन्ध स्थापित कर लेता है। करुणा, दया, सेवा, उदारता, सहृदयता, सद्भावना, सहानुभूति सज्जनता के रूप में उसको पग-पग पर उसे कार्यान्वित करना ही भक्ति योग है।

देह, मन और हृदय के त्रिविधि परिधानों को स्थूल, सूक्ष्म एवं कारण शरीर को विकसित करने के लिए जो भी तरीके हैं उन सबको कर्मयोग, ज्ञानयोग एवं भक्तियोग की परिधि में सम्मिलित किया जा सकता है। यही तीनों ही साधनाएं  -आत्मा के त्रिविधि परिधानों को सुविकसित एवं सर्वांग सुन्दर बनाने में समर्थ रही हैं। कर्म योग से शरीर, ज्ञान योग से मन और भक्ति योग से अन्तःकरण की महान महत्ताओं का विकास होता है। यों मोटे तौर से आहार व्यायाम से शरीर, शिक्षा से मन और वातावरण से अन्तःकरण के विकास का प्रयत्न किया जाता है पर यह तरीके बाह्योपचार मात्र हैं।
 
पर्यावरण संतुलन भी योग है :- 
 
भौतिक विषयों (आसन) और मानसिक विषयों (ध्यान) के माध्यम से ब्रह्मांडीय आत्मा के साथ व्यक्ति की आत्मा को एकजुट करने का विज्ञान योग है।  पतंजलि ने संक्षेप में इस शब्द की व्याख्या की है कि योग मन की समाप्ति है। योग मन की तपस्या है। योग प्राचीन भारत आध्यात्मिकता के इतिहास का अंत उत्पाद है। प्रकृति स्वभाव से ही योगी है उसके हर कण में योग है। वृक्ष सबसे बड़े योगी निश्चल निशब्द सैकड़ों वर्षों से योग में लिप्त बैठे हैं। 
 
शुक्ल यजुर्वेद में ऋषि प्रार्थना करता है, ‘द्योः शांतिरंतरिक्षं...’ (शुक्ल यजुर्वेद, 36/17)। इसलिए वैदिक काल से आज तक चिंतकों और मनीषियों द्वारा समय-समय पर पर्यावरण के प्रति अपनी चिंता को अभिव्यक्त कर मानव जाति को सचेष्ट करने के प्रति अपने उत्तरदायित्व का निर्वाह किया गया है। पृथ्वी के सभी जैविक और अजैविक घटक संतुलन की अवस्था में रहें, अदृश्य आकाश (द्युलोक), नक्षत्रयुक्त दृश्य आकाश (अंतरिक्ष), पृथ्वी एवं उसके सभी घटक-जल, औषधियां, वनस्पतियां, संपूर्ण संसाधन (देव) एवं ज्ञान-संतुलन की अवस्था में रहें, तभी व्यक्ति और विश्व, शांत एवं संतुलन में रह सकता है। 
 
पर्यावरणीय तत्वों में समन्वय होना ही सुख शांति का आधार है। दूसरे शब्दों में पदार्थों का परस्पर समन्वय ही शांति है। यही प्रकृति का योग है। 
 
दश कूप समा वापी, दशवापी समोहद्रः।
दशहृद समः पुत्रो, दशपुत्रो समो द्रुमः।
 
पर्यावरण के संतुलन में वृक्षों के महान योगदान एवं भूमिका को स्वीकार करते हुए मुनियों ने बृहत् चिंतन किया है। मत्स्य पुराण में उनके महत्व एवं महात्म्य को स्वीकार करते हुए कहा गया है कि दस कुओं के बराबर एक बावड़ी होती है, दस बावड़ियों के बराबर एक तालाब, दस तालाबों के बराबर एक पुत्र है और दस पुत्रों के बराबर एक वृक्ष होता है। 
 
यहां एक सवाल उठता है कि योग तकनिक ग्लोबल वार्मिंग के मुद्दे को हल करने के लिए उपयोगी है? योग चेतना और महत्वाकांक्षा नियंत्रण और जीवन के भौतिक पदार्थों के नियमन और आत्म अनुशासन के लिए मंच प्रदान करता है। जलवायु परिवर्तन मनुष्य के बेकाबू उपभोक्तावाद एवं जीवन की अनुशासनहीनता का परिणाम है। 

जलवायु परिवर्तन वास्तव में तापमान में वृद्धि कर रहा है और इसका नकारात्मक प्रभाव कृषि, आजीविका, वन, जल निकायों और लोगों के स्वास्थ्य पर पड़ रहा है। योग के माध्यम से हम प्रकृति से तादात्म स्थापित कर उसके संरक्षण की प्रवृत्ति मनुष्य के अन्दर उत्पन्न कर सकते हैं एवं प्रकृति के दोहन से भविष्य में मानव जीवन पर जो घोर विपत्तियां आने वाली हैं उनसे बच सकते हैं। 



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