'योग : दि अल्फा एंड दि ओमेगा' शीर्षक से ओशो द्वारा अंग्रेजी में दिए गए 100 अमृत प्रवचनों को पढ़ना बहुत ही अद्भुत है। उन्होंने कहा कि जैसे बाहरी विज्ञान की दुनिया में आइंस्टीन का नाम सर्वोपरि है, वैसे ही भीतरी विज्ञान की दुनिया के आइंस्टीन हैं पतंजलि। जैसे पर्वतों में हिमालय श्रेष्ठ है, वैसे ही समस्त दर्शनों, विधियों, नीतियों, नियमों, धर्मों और व्यवस्थाओं में योग श्रेष्ठ है। पतंजलि ने ही योग को सर्वप्रथम व्यवस्थित करके आसान बनाया। उनके योग को राजयोग कहते हैं। ओशो ने उनके योगसूत्र ग्रंथ पर अपने प्रवचन दिए हैं जो अद्भुत है।
इस किताब में योग के बारे में सबकुछ है। इस किताब को पढ़ने या ओशो के 100 प्रवचनों को सुनने के बाद आप को कुछ भी पढ़ने की आवश्यकता नहीं रह जाएगी। हां आप चाहें तो परमहंस योगानंद की 'योगी कथामृत' किताब को पढ़ सकते हैं। यह किताब भी बहुत ही अद्भुत है।
पतंजलि कौन थे?
पतंजलि एक महान चिकित्सक थे। पतंजलि रसायन विद्या के विशिष्ट आचार्य थे- अभ्रक, विंदास, धातुयोग और लौहशास्त्र इनकी देन है। पतंजलि संभवत: पुष्यमित्र शुंग (195-142 ईपू) के शासनकाल में थे। राजा भोज ने इन्हें तन के साथ मन का भी चिकित्सक कहा है। पतंजलि का जन्म गोनारद्य (गोनिया) में हुआ था लेकिन कहते हैं कि ये काशी में नागकूप में बस गए थे।
पतंजलि के ग्रंथ :
भारतीय दर्शन साहित्य में पतंजलि के लिखे हुए 3 प्रमुख ग्रंथ मिलते हैं- योगसूत्र, अष्टाध्यायी पर भाष्य और आयुर्वेद पर ग्रंथ। विद्वानों में इन ग्रंथों के लेखक को लेकर मतभेद हैं। कुछ मानते हैं कि तीनों ग्रंथ एक ही व्यक्ति ने लिखे, अन्य की धारणा है कि ये विभिन्न व्यक्तियों की कृतियां हैं। पतंजलि ने पानिणी के अष्टाध्यायी पर अपनी टीका लिखी जिसे महाभाष्य कहा जाता है। यह भी माना जाता है कि वे व्याकरणाचार्य पानिणी के शिष्य थे।
पतंजलि का योगसूत्र :
योगसूत्र में पतंजलि से योग की बिखरी हुई संपूर्ण विद्या को 4 अध्यायों में समेट दिया है। ये 4 अध्याय या पाद हैं- समाधिपाद, साधनपाद, विभूतिपाद तथा कैवल्यपाद।
प्रथम पाद का मुख्य विषय चित्त की विभिन्न वृत्तियों के नियमन से समाधि द्वारा आत्मसाक्षात्कार करना है। द्वितीय पाद में 5 बहिरंग साधन- यम, नियम, आसन, प्राणायाम और प्रत्याहार का विवेचन है। तृतीय पाद में अंतरंग 3 धारणा, ध्यान और समाधि का वर्णन है। इसमें योगाभ्यास के दौरान प्राप्त होने वाली विभिन्न सिद्धियों का भी उल्लेख हुआ है। चतुर्थ कैवल्यपाद मुक्ति की वह परमोच्च अवस्था है, जहां एक योग साधक अपने मूल स्रोत से एकाकार हो जाता है।