इंदौर, शहीद भगत सिंह, राजगुरू, सुखदेव, बोस, आजाद और मंगल पाण्डेय का देश की आजादी के लिए दिया गया बलिदान तो इतिहास में दर्ज है। उनके इस बलिदान का गुणगान सदियों तक भारत करता रहेगा।
देश की आजादी में कुछ ऐसे क्रांतिकारी भी रहे हैं, जिन्होंने न सिर्फ अपना पूरा जीवन आजादी की लड़ाई में झोंक दिया, बल्कि हंसते-खेलते फांसी पर भी झूल गए। लेकिन इस बलिदान और शहादत का दुखद पहलू यह है कि उनके बारे में कोई नहीं जानता। गूगल करने पर भी इन बलिदानों की वीरगाथाएं नहीं मिलती।
वेबदुनिया ने कुछ ऐसे ही बलिदानियों के बारे में पता लगाने की कोशिश की। बहुत खोजबीन के बाद और उनके परिवार के पास मौजूद कुछ प्रमाणों के आधार पर हमने उनकी शहादत की कहानी को सामने लाने का प्रयास किया है। आइए जानते हैं देश की आजादी के लिए मर मिटने वाले शहीदों के बारे में।
एक ही परिवार के 5 वीर हुए शहीद
1857 में आजादी की पहली लड़ाई के दौरान समय घटित क्रांति में मध्यप्रदेश के मुलताई में रहने वाले देशपांडे परिवार के बलिदान का इतिहास उल्लेखनीय है। देशपांडे परिवार के पांच सदस्यों में आजादी की लड़ाई लड़ते हुए फांसी के फंदे को चूमकर अपने गले लगा लिया, लेकिन इनमें से सिर्फ एक क्रांतिकारी की शहादत का जिक्र बहुत खोजने पर सामने आ सका। हालांकि उनके बलिदान की कहानी को इसी परिवार की वंशज पद्मा काळे ने अपनी किताब फाशी आंबा में दर्ज किया है। इन क्रांतिकारियों की शहादत की कहानियां समय- समय पर महाराष्ट्र के अखबारों में भी प्रकाशित होती रही हैं।
इसी परिवार के कौस्तुभ देशपांडे ने वेबदुनिया को खासतौर से बताया कि दस्तावेजों और परिवार के बुर्जुगों के अतीत से निकलकर आई यादों से सामने आता है कि उनके परिवार ने स्वतंत्रता संग्राम में बड़ा बलिदान दिया था।
अहमदशाह अब्दाली के खिलाफ तैयार हुई थी मराठा सेना
उन्होंने बताया कि अफगानी लुटेरे अहमदशाह अब्दाली के खिलाफ देश की रक्षा के लिए सन 1760 में तत्कालीन पेशवा नानासाहेब (बाजीराव के पुत्र) ने उनके चचेरे भाई सदाशिवराव भाऊ के नेतृत्व में एक विशाल मराठा सेना को पुणे से दिल्ली कूच करने का आदेश दिया था। सातारा के सरदार देशपांडे भी इसी सेना में शामिल थे, जिन्होंने दिल्ली प्रस्थान किया था। दिल्ली के रास्ते में सिंधिया, होलकर, पवार व अन्य सरदारों की सेनाएं पेशवा की सेना में शामिल हुईं।
... और मराठों की हो गई हार
14 जनवरी 1761 के पानीपत के भीषण युद्ध में सदाशिवराव भाऊ की सेना ने अहमदशाह अब्दाली की सेना से डटकर मुकाबला किया। लेकिन इस युद्ध में मराठों की हार हो गई। इस युद्ध में दोनों तरफ से कई मौतें हुईं। हालांकि इस युद्ध में जो सरदार जिंदा बचकर लौट सके उनमें महादजी सिंधिया, मल्हारराव होलकर, सरदार देशपांडे इत्यादि शामिल थे। इन सभी ने बाद में छत्रपति शिवाजी महाराज के हिन्द स्वराज को खड़ा करने में योगदान दिया। और फिर वो दिन आया जब करीब 10 साल बाद माधवराव पेशवा के नेतृत्व में महादजी सिंधिया ने फिर से दिल्ली पर अपना आधिपत्य जमाया और पानीपत की हार का प्रतिशोध लिया।
ऐसे प्रख्यात हुआ देशपांडे परिवार
दरअसल युद्ध में हार के बाद सरदार देशपांडे एक नई शुरुआत करना चाहते थे। इसके लिए वे सबसे पहले काशी विश्वनाथ के दर्शन के लिए काशी पहुंचे। उन्होंने तय किया था कि वहां जिस देवता की मूर्ति के सबसे पहले दर्शन होंगे, उन्हें ही अपना ईष्ट देवता मानकर जीवन में नए अध्याय का श्रीगणेश करेंगे। दिलचस्प था कि उन्हें काले पत्थर से निर्मित सबसे पहले राधा-कृष्ण की मूर्ति के दर्शन हुए। उन्हें अपने साथ लेकर नई कर्मभूमि की खोज में ताप्ती नदी के तट पर स्थित मुलताई पहुंचे। इसके बाद मुलताई को ही उन्होंने अपनी कर्मभूमि बनाने का निर्णय किया।
सन् 1761 में परिवार समेत वे वहीं स्थाईरूप से बस गए। मुलताई में ताप्ती नदी के तट पर स्थित राधा-कृष्ण का मंदिर इस बात की गवाही देता है और इस इतिहास को बयां करता है। इस तरह सातारा का देशपांडे घराना मुलताई के देशपांडे घराने के नाम से प्रख्यात हुआ।
मदद कर दे दी अपनी शहादत
1817-19 के तृतीय मराठा-अंग्रेज युद्ध में शनिवार वाडा पर अंग्रेजों ने अपना अधिपत्य कर लिया। नतीजा यह हुआ कि इस दौरान मराठा साम्राज्य में कई जगह क्रांति की लहर फैल गई और ठीक इसी वक्त अंग्रेजों से संघर्ष हुआ। इसी दौरान नागपुर के अप्पा साहिब भोंसले व गोंड राजा की सेना ने बेतुल के पास कप्तान स्पार्क्स की पूरी सेना का खात्मा कर दिया। इससे बोखलाए अंग्रेजों ने अप्पा साहिब को पकड़ने और ज्यादा सेना भेजी, लेकिन अंग्रेजों की सेना अप्पा साहिब को पकड़ने में नाकामयाब रही। इसमें देशपांडे और देशमुख मुखिया ने बहुत मदद की थी, जिसका नतीजा यह हुआ कि अंग्रेजों ने मुलताई के देशमुख व देशपांडे मुखिया को अप्पा साहिब की मदद करने के आरोप में कैद कर लिया और फ़ासी पर चढ़ा दिया। पद्मा काले बताती हैं कि उनके पिताजी ने उन्हें वदचिचोली गांव में वह सर्व स्थान व घने जंगल दिखाए, जहां यह बलिदान और इतिहास की यह घटना हुई थी।
5 योद्धाओं ने दिया अपना बलिदान
देश के लिए की गई क्रांति में इस परिवार का अतुलनीय योगदान रहा है। दरअसल 1857 की क्रांति यानी प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में अंग्रेजों से युद्ध में इसी घराने के 5 योद्धाओं ने अपना योगदान दिया और देशभक्ति दिखाई थी। जिसके बाद अंग्रेजों ने इन योद्धाओं को मुलताई के पास एक आम के वृक्ष पर फांसी पर चढ़ा दिया। इस त्याग और बलिदान के बारे में हालांकि कहीं किसी दस्तावेज में कुछ दर्ज नहीं है, लेकिन परिवार की हर शाखा ने पीढ़ी दर पीढ़ी अपने पुरखों के इस बलिदान को स्मरण कर के जीवित रखा है। अतीत की इन्हीं यादों और स्मरण के आधार पर पद्मा काले ने फाशी आम्बा नाम की एक पुस्तक लिखी है। जिसमें इस परिवार की शहादत की बातें दर्ज हैं।
मुलताई में मौजूद है गोपाल बाबा की समाधि
इस परिवार के कौस्तुभ देशपांडे ने बताया कि पद्मा काले के दादाजी बताया करते थे कि उन पांचों वीर योद्धाओं को फांसी देने के बाद अंग्रेजों ने उनका मुलताई स्थित वाड़ा जला दिया। उनके माता- पिता व दो बहने छिपकर अज्ञातवास में रहे और अपनी जान बचाई। वे बताती हैं कि दादाजी के पिताजी ने सन्यास लिया था। उनकी समाधि आज भी मुलताई में स्थित है। यह समाधि गोपाल बाबा के नाम से जानी जाती है। वे यह भी बताती हैं कि 1857 के स्वतंत्रता संग्राम के नायक तात्या टोपे ने ताप्ती के तट पर यज्ञ किया था। यज्ञ के बाद देशपांडे परिवार के मुखियाओं से चर्चा कर उनकी सेनाएं आसपास के घने जंगलो में सूबेदार म्हैराल की खोज में गए थे। आज भी वह क्षेत्र घने जंगलों से भरा है।
स्वतंत्रता संग्राम में इस परिवार का कनेक्शन एक इस बात से भी मिलता है कि उनकी माताजी बताया करती थी कि झांसी की रानी के पुत्र दामोदर बैतूल में दादाजी से मिलने आए थे। दरअसल, उन्हें अंग्रेजों से 5 लाख के सोने के जेवर मुक्त करवाने थे। पिताजी बैतूल के नामी वकील थे, इसलिए उन्हें रिसीवर बनाया गया था।
घर के बुजुर्ग बताते हैं कि सबकुछ खो देने के बाद भी क्रांति की मशाल बुझी नहीं। अंग्रेजों के खिलाफ युद्ध जारी रहा। 1932 में उनका घर क्रांतिकारियों का अड्डा हुआ करता था। वहीं से रोजाना बुलेटिन प्रकाशित करना आदि काम जारी रहा।
सरकार ने दिया था सत्कार का न्यौता
सन 1857 के 100 साल पूरे होने पर स्वर्गीय लक्ष्मणराव देशपांडे (पद्मा काले के पिताजी) को सरकार ने यह सूचना भेजी थी कि 1857 के स्वतंत्रता संग्राम के दौरान उनके परिवार ने जो बलिदान दिया है, उसके बदले में सरकार उनका सत्कार करना चाहती है। लेकिन देशपांडे जी ने यह कहकर सरकार का प्रस्ताव अस्वीकार कर दिया कि उनका छोटा घराना मुलताई में है, उन्हीं से संपर्क करें। इसके बाद उसी परिवार के श्रीधर देशपांडे का सत्कार किया गया। इस दौरान कुछ लोगों को झांसी की रानी और तात्या टोपे की वेशभूषा में सजाकर मुलताई के रास्तों पर जुलूस निकाला गया था।
नोट : यह खबर मुलताई के देशपांडे परिवार द्वारा दी गई जानकारी और प्रमाणों पर आधारित है।