ज्येष्ठ मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी निर्जला एकादशी या भीमसेनी एकादशी के नाम से विख्यात है। वैसे तो भारतीय जनमानस में आध्यात्मिक स्तर पर एकादशी व्रत सर्वाधिक लोकप्रिय व्रत है, परंतु कुछ एकादशियां अतिविशिष्ट स्थान रखती हैं और उन्होंने आस्था पर्व का स्वरूप ग्रहण कर लिया है। उदाहरण के लिए देवशयनी एकादशी, देवोत्थान एकादशी, मोक्षदा एकादशी तथा निर्जला एकादशी कुछ विशेष महत्व की समझी जाती हैं। ये व्रत के साथ-साथ पंचांग के काल निर्धारण के लिए भी उपयोगी मानी जाती हैं।
श्री हरि भगवान विष्णु के निमित्त किया गया एकादशी व्रत न सिर्फ कलियुग में कामधेनु सदृश्य है, अपितु द्वापर युग में भी एकादशी व्रत द्वारा मनोरथ सिद्ध होने के प्रमाण मिलते हैं। शास्त्रों में उल्लेखों के अनुसार मान्यता है कि पांडव पुत्र भीम के लिए कोई भी व्रत करना कठिन था, क्योंकि उनकी उदराग्नि कुछ ज्यादा प्रज्वलित थी और भूखे रहना उनके लिए संभव न था। मन से वे भी एकादशी व्रत करना चाहते थे। इस संबंध में भीम ने वेद व्यास व भीष्म पितामह से मार्गदर्शन लिया। दोनों ने ही भीम को आश्वस्त किया कि यदि वे वर्ष में सिर्फ निर्जला एकादशी का व्रत ही कर लें तो उन्हें सभी 24 एकादशियों (यदि अधिक मास हो तो छब्बीस) का फल मिलेगा। इसके पश्चात भीम ने सदैव निर्जला एकादशी का व्रत किया।
इसी कारण इस एकादशी का नाम भीमसेनी एकादशी और कुछ अंचलों में पांडव एकादशी पड़ा। कुछ ग्रंथों में माघ शुक्ल एकादशी व कार्तिक शुक्ल एकादशी को भी भीमसेनी एकादशी का नाम दिया गया है, परंतु ज्यादातर विद्वान निर्जला एकादशी को ही भीमसेनी एकादशी के रूप में स्वीकार करते हैं।
पद्म पुराण में निर्जला एकादशी व्रत द्वारा मनोरथ सिद्ध होने की बात कही गई है। जैसा कि निर्जला के नाम से स्पष्ट है, इस दिन व्रती को अन्न तो क्या, जल ग्रहण करना भी वर्जित है। यानी यह व्रत निर्जला और निराहार ही होता है। शास्त्रों में यह भी उल्लेख मिलता है कि संध्योपासना के लिए आचमन में जो जल लिया जाता है, उसे ग्रहण करने की अनुमति है।
निर्जला एकादशी को प्रातःकाल से लेकर दूसरे दिन द्वादशी की प्रातःकाल तक उपवास करने की अनुशंसा की गई है। दूसरे दिन जल कलश का विधिवत पूजन किया जाता है। तत्पश्चात कलश को दान में देने का विधान है। इसके बाद ही व्रती को जलपान, स्वल्पाहार, फलाहार या भोजन करने की अनुमति प्रदान की गई है।
व्रत के दौरान 'ॐ नमो नारायण' या विष्णु भगवान का द्वादश अक्षरों का मंत्र 'ॐ नमो भगवते वासुदेवाय' का सतत एवं निर्बाध जप करना चाहिए। भगवान की कृपा से व्रती सभी कर्मबंधनों से मुक्त हो जाता है और विष्णुधाम को जाता है, ऐसी धार्मिक मान्यता है।
निर्जला एकादशी व्रत पौराणिक युगीन ऋषि-मुनियों द्वारा पंचतत्व के एक प्रमुख तत्व जल की महत्ता को निर्धारित करता है। जप, तप, योग, साधना, हवन, यज्ञ, व्रत, उपवास सभी अंतःकरण को पवित्र करने के साधन माने गए हैं, जिससे काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर और राग-द्वेष से निवृत्ति पाई जा सके।
तुलसीदासजी ने भी मोह को सकल व्याधियों का मूल बताया है। सर्वमान्य तथ्य है कि संपूर्ण ब्रह्मांड व मानव शरीर पंचभूतों से निर्मित है। ये पांच तत्व पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु तथा आकाश हैं। पृथ्वी व आकाश तत्व हमेशा ही हमारे साथ रहते हैं और हवाई यात्रा के दौरान यदि पृथ्वी से संपर्क छूटता है, तब भी आकाश तत्व सदैव साथ रहता है।
निर्जला व्रत में व्रती जल के कृत्रिम अभाव के बीच समय बिताता है। जल उपलब्ध होते हुए भी उसे ग्रहण न करने का संकल्प लेने और समयावधि के पश्चात जल ग्रहण करने से जल तत्व के बारे में व पंचभूतों के बारे में मनन प्रारंभ होता है। व्रत करने वाला जल तत्व की महत्ता समझने लगता है।
वैज्ञानिक भी इस तथ्य को स्वीकार करते हैं कि मनुष्य शरीर में यदि जल की कमी आ जाए तो जीवन खतरे में पड़ जाता है। वर्तमान युग में जब जल की कमी की गंभीर चुनौतियां सारा संसार स्वीकार कर रहा है, जल को एक पेय के स्थान पर तत्व के रूप में पहचानना दार्शनिक धरातल पर जरूरी है।