हिन्दू शास्त्रों में प्रमुख 16 संस्कारों में विवाह भी है। यदि वह संन्यास नहीं लेता है तो प्रत्येक व्यक्ति को विवाह करना जरूरी है। विवाह करने के बाद ही पितृऋण चुकाया जा सकता है। वि + वाह = विवाह अर्थात अत: इसका शाब्दिक अर्थ है- विशेष रूप से (उत्तरदायित्व का) वहन करना। विवाह को पाणिग्रहण कहा जाता है। दरअसल, विवाह संस्कार हिन्दू धर्म संस्कारों में 'त्रयोदश संस्कार' है।
निषेध विवाह : विवाह करके एक पत्नी व्रत धारण करना ही सभ्य मानव की निशानी है। बहुत सोच-समझ कर वैदिक ऋषियों ने विवाह के कुछ प्रकार बताएं जिसमें से कुछ तरह के विवाह को समाज में निषेध किया गया। प्रजापत्य विवाह, गंधर्व विवाह, असुर विवाह, राक्षस विवाह, पैशाच विवाह आदि। आधुनिकता के नाम पर 'लिव इन रिलेशनशिप' जैसे निषेध विवाह को बढ़ावा देना देश और धर्म के विरुद्ध ही है। इस तरह के विवाह कुल के नाश और देश के पतन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते आए हैं।
प्रत्येक प्रांत में हिन्दुओं ने अपने विवाह के रीति रिवाज को स्थानीयता के आधार पर गढ़ा है। प्राचीन काल में ऐसा नहीं था। सभी वेद सम्मत विवाह ही करते थे। लंबी काल परंपरा और विदेशी धर्म और संस्कृति के मिश्रण के कारण हिन्दू विवाह संस्कार में विकृति आ गई जिसके चलते प्रत्येक समाज, प्रांत और स्थान विशेष के विवाह संस्कार भी भिन्न हो गए जो कि अनुचित है।
हिन्दू धर्म का एकमात्र धर्मग्रंथ वेद हैं। वेद अनुसार किए गए विवाह संस्कार ही शास्त्रसम्मत होते हैं। वेदों के अलावा गृहसूत्रों में संस्कारों का उल्लेख मिलता है। विवाह को हिन्दुओं के प्रमुख 16 संस्कारों में से एक माना जाता है जो कि बहुत ही पवित्र कर्म होता है। इसी संस्कार के बाद व्यक्ति गृहस्थ जीवन में प्रवेश करता है। यदि यह संस्कार उचित रीति से नहीं हुआ है तो यह महज एक समझौता ही होगा।
आज विवाह वासना-प्रधान बनते चले जा रहे हैं। रंग, रूप एवं वेष-विन्यास के आकर्षण को पति-पत्नि के चुनाव में प्रधानता दी जाने लगी है, दूसरी ओर वर पक्ष की हैसियत, धन, सैलरी आदि देखी जाती है। यह प्रवृत्ति बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण है। लोगों की इसी सोच के कारण दाम्पत्य-जीवन और परिवार बिखरने लगे हैं। प्रेम विवाह और लीव इन रिलेशन पनपने लगे हैं जिनका अंजाम भी बुरा ही सिद्ध होता है। विवाह संस्कार अब एक समझौता, बंधन और वैध व्याभिचार ही रह गया है जिसका परिणाम तलाक, हत्या या आत्महत्या के रूप में सामने देखने को मिलता है। अन्यथा वर के माता पिता को अपने ही घर से बेदखल किए जाने के किस्से भी आम हो चले हैं।
हिन्दू धर्मानुसार विवाह एक ऐसा कर्म या संस्कार है जिसे बहुत ही सोच-समझ और समझदारी से किए जाने की आवश्यकता है। दूर-दूर तक रिश्तों की छानबिन किए जाने की जरूरत है। जब दोनों ही पक्ष सभी तरह से संतुष्ट हो जाते हैं तभी इस विवाह को किए जाने के लिए शुभ मुहूर्त निकाला जाता है। इसके बाद वैदिक पंडितों के माध्यम से विशेष व्यवस्था, देवी पूजा, वर वरण तिलक, हरिद्रालेप, द्वार पूजा, मंगलाष्टकं, हस्तपीतकरण, मर्यादाकरण, पाणिग्रहण, ग्रंथिबन्धन, प्रतिज्ञाएं, प्रायश्चित, शिलारोहण, सप्तपदी, शपथ आश्वासन आदि रीतियों को पूर्ण किया जाता है।
ब्रह्म विवाह : दोनों पक्ष की सहमति से समान वर्ग के सुयोज्ञ वर से कन्या का विवाह निश्चित कर देना 'ब्रह्म विवाह' कहलाता है। सामान्यतः इस विवाह में वैदिक रीति और नियम का पालन किया जाता है। इस विवाह में कुंली मिलान को उचित रीति से देख लिया जाता है। मांगलिक दोष मात्र 20 प्रतिशत ही बाधक बन सकता है। वह भी तब जब अष्टमेश एवं द्वादशेश दोनों के अष्टम एवं द्वादश भाव में 5 या इससे अधिक अंक पाते हैं। मांगलिक के अलावा यदि अन्य मामलों में कुंडली मिलती है तो विवाह सुनिश्चित कर दिया जाता है। अत: मंगल दोष कोई बहुत बड़ी समस्या नहीं होती है।
वर द्वारा मर्यादा स्वीकारोक्ति के बाद कन्या अपना हाथ वर के हाथ में सौंपे और वर अपना हाथ कन्या के हाथ में सौंप दे। इस प्रकार दोनों एक दूसरे का पाणिग्रहण करते हैं। यह क्रिया हाथ से हाथ मिलाने जैसी होती है। मानों एक दूसरे को पकड़कर सहारा दे रहे हों। कन्यादान की तरह यह वर-दान की क्रिया तो नहीं होती, फिर भी उस अवसर पर वर की भावना भी ठीक वैसी होनी चाहिए, जैसी कि कन्या को अपना हाथ सौंपते समय होती है। वर भी यह अनुभव करें कि उसने अपने व्यक्तित्व का अपनी इच्छा, आकांक्षा एवं गतिविधियों के संचालन का केन्द्र इस वधू को बना दिया और अपना हाथ भी सौंप दिया। दोनों एक दूसरे को आगे बढ़ाने के लिए एक दूसरे का हाथ जब भावनापूर्वक समाज के सम्मुख पकड़ लें, तो समझना चाहिए कि विवाह का प्रयोजन पूरा हो गया।
मनुष्य के ऊपर देवऋण, ऋषिऋण एवं पितृऋण- ये तीन ऋण होते हैं। यज्ञ-यागादि से देवऋण, स्वाध्याय से ऋषिगण तथा उचित रीति से ब्रह्म विवाह करके पितरों के श्राद्ध-तर्पण के योग्य धार्मिक एवं सदाचारी पुत्र उत्पन्न करके पितृऋण का परिशोधन होता है। इस प्रकार पितरों की सेवा तथा सदधर्म का पालन करने की परंपरा सुरक्षित रखने के लिए संतान उत्पन्न करना विवाह का परम उद्देश्य है। यही कारण है कि हिन्दू धर्म में ब्रह्म विवाह को एक पवित्र-संस्कार के रूप में मान्यता दी गयी है।
विवाह की उम्र : कानूनी रूप से विवाह हेतु लड़की की उम्र 18 वर्ष और लड़के की उम्र 21 वर्ष नियुक्त की गई है, जोकि अनुचित है। बायोलॉजिकल रूप से लड़का या लड़की दोनों ही 18 वर्ष की उम्र में विवाह योग्य हो जाते हैं। कानून और परंपरा का हिन्दू धर्म से कोई संबंध नहीं। स्थानीय परंपरा में तो लड़के और लड़कियों का विवाह बचपन में ही कर दिया जाता है और विवाह की परंपराएं भी अजीबोगरीब है। लेकिन इस तरह के रिवाजों का हिन्दू धर्म से कोई नाता नहीं।
हिन्दू दर्शन के मुताबिक आश्रम प्रणाली में विवाह की उम्र 25 वर्ष थी जिससे बेहतर स्वास्थ्य और कुपोषण की समस्या से छुटकारा मिलता था। ब्रह्मचर्य आश्रम में अपनी पढ़ाई पूर्ण करने के बाद ही व्यक्ति विवाह कर सकता था। उम्र में अंतर होने के मामले हिन्दू धर्म कोई खास हिदायत नहीं देता। लड़की की उम्र अधिक हो, समान हो या कि कम हो इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। यदि दोनों की पढ़ाई अच्छे से संस्कारबद्ध हुई है तो दोनों में ही समझदारी होगी। यदि दोनों ही हिन्दू धर्म के बारे में नहीं जानते हैं और संस्कारवान नहीं है तो उनका विवाह मात्र एक समझौताभर ही रहेगा। यह समझौता कब तक कायम रहेगा यह नहीं कह सकते।