डॉ. रमेश प्रताप सिंह
ज्योतिर्विज्ञान जिस प्रकार संस्कृत भाषा में उपनिबद्ध होकर अनेक ग्रंथों के रूप में सुरक्षित, संरक्षित है, उसी प्रकार लोकजीवन की स्थानीय भाषाओं में भी ज्योतिष ज्ञान के अनेक व्यावहारिक सूत्र लोक स्मृतियों में संग्रहीत होकर जन-जन की वाणी से प्रस्फुटित होते रहते हैं।
भारतवर्ष कृषिप्रधान देश है और कृषि का मुख्य आधार है वर्षा- 'पर्जन्यादन्नसम्भव:'। समुचित वर्षा होने पर ही अन्न की उपज ठीक से हो सकती है। अत: वर्षा कब होगी, होगी कि नहीं होगी, कितनी मात्रा में होगी- इसका ज्ञान होना कृषि कर्म के लिए बहुत आवश्यक है।
यह विषय ज्योतिष के तीन स्कन्धों में मुख्य रूप से संहिता स्कंध के अंतर्गत वर्णित है। आचार्य वराह मिहिर ने अपनी बृहत्संहिता में तथा उसके टीकाकार भट्टोत्पल ने अपनी भट्टोत्पली में इस विषय पर बहुत विचार किया है, परंतु बेचारा किसान इन सब बातों को कैसे जाने, संभवत: इसी समस्या के निदान के लिए लोकभाषा में कहावतों के रूप में सूक्तियों का प्रादुर्भाव हुआ और इन्हीं कहावतों, जिनमें भविष्यवाणियां रहती हैं, के आधार पर ग्राम्य-अंचल में खेती एवं सामाजिक समस्याओं का निदान करने की सुदीर्घ परंपरा रही है। इन भविष्यवाणियों के जनक के रूप में 'घाघ' तथा 'भड्डरी' का नाम अत्यंत विश्रुत है। दोनों ने ही आज से लगभग 400 वर्ष पूर्व इन भविष्यवाणियों का प्रवर्तन किया, जिनके मूल रूप ज्योतिष के ग्रंथों में उपलब्ध हैं तथापि इनका मौसम ज्ञान तथा शुभाशुभ विचार वैयक्तिक अनुभूति पर आधारित है।
घाघ जहां खेती, नीति एवं स्वास्थ्य से जुड़ी कहावतों के लिए विख्यात हैं, वहीं भड्डरी की रचनाएं वर्षा, ज्योतिष और आचार-विचार से विशेष रूप से संबद्ध हैं। घाघ और भड्डरी के विषय में अनेक किंवदंतियां प्रसिद्ध हैं। दोनों ही अत्यंत कुशल, बुद्धिमान, नीतिमान तथा भविष्य का ज्ञान रखने वाले थे। सामान्यतया कोई व्यक्ति अत्यंत नीतिनिपुण, चालाक एवं गहरी सूझबूझ और पैठ रखने वाला हो तो उस 'घाघ' कहकर- यह कह दिया जाता है कि अरे! वह तो बड़ा ही घाघ है। यद्यपि इन दोनों के व्यक्तिगत जीवन के विषय में विशेष जानकारी प्राप्त नहीं होती तथापि कुछ बातें इस प्रकार हैं-
यह कहा जाता है कि घाघ का जन्मस्थान बिहार (छपरा) था, वहां से ये कन्नौज चले आए। ऐसी मान्यता है कि कन्नौज में घाघ की ससुराल थी और ये छपरा से आकर कन्नौज में बस गए। कुछ लोग तो यह भी कहते हैं कि उनकी अपनी पुत्रवधू से अनबन रहती थी, इससे खिन्न होकर घाघ छपरा छोड़कर कन्नौज चले आए। कहा जाता है कि घाघ का पूरा नाम देवकली दुबे था। इनके दो पुत्र थे और ये कन्नौज के चौधरीसराय के निवासी थे। घाघ की प्रतिभा से सम्राट अकबर भी बहुत प्रभावित थे, फलस्वरूप उपहार में उन्होंने इन्हें 'चौधरी' की उपाधि, प्रचुर धनराशि तथा कन्नौज के पास भूमि दी। इन्होंने जो गांव बसाया, उसका नाम 'अकबराबाद सराय घाघ' पड़ा। अकबर की मृत्यु सन् 1605 ईस्वीं में हो गई थी अत: घाघ का जन्म-समय 16वीं सदी के मध्यकाल के पहले का रहा होगा।
कहा जाता है कि घाघ बचपन से ही कृषि विषयक समस्याओं के निदान में अत्यंत दक्ष थे और दूर-दूर से लोग इनके पास समाधान के लिए आया करते थे। एक बार घाघ बचपन में हमउम्र बच्चों के साथ खेल रहे थे, उनकी गुणज्ञता को जानकर उसी समय एक ऐसा व्यक्ति इनके समीप आया जिसके पास कृषि कार्य के लिए पर्याप्त भूमि थी, किंतु उपज उसमें इतनी कम होती थी कि उसका परिवार भोजन के लिए दूसरों पर निर्भर रहता था। उस व्यक्ति की समस्या सुनकर घाघ तुरंत बोल उठे-
आधा खेत बटैया देके, ऊंची दीह किआरी।
जो तोर लइका भूखे मरिहें, घघवे दीह गारी।।
कहा जाता है कि घाघ के कथनानुसार करने पर वह किसान धन-धान्य से पूर्ण हो गया।
घाघ के समान ही भड्डरी का जीवनवृत्त भी संभावनाओं की परिधि में है। इनकी कहावतें उत्तरप्रदेश और बिहार में अत्यधिक प्रचलित हैं। लोगों का यह मानना है कि काशी के आसपास इनका क्षेत्र माना जा सकता है। मारवाड़ में भी एक भड्डरी हुए हैं, वे इनसे भिन्न हैं। घाघ के समान ही लोकजीवन से संबंधित कहावतों में कही गई भड्डरी की भविष्यवाणियां भी बहुत प्रसिद्ध हैं। इन दोनों का समय प्राय: एक ही है; क्योंकि कई कहावतों में 'घाघ कहै सुनु भड्डरी' यह प्रयोग मिलता है। इन दोनों की भविष्यवाणियां अत्यंत प्रासंगिक और उपयोगी हैं तथा ज्ञान-विज्ञान की अनेक बातें इनमें भरी हैं। गेय तथा रोचक होने से ये जनजीवन के कंठ में स्मृति रूप में व्याप्त हैं। लोग इन उक्तियों को कहकर स्वयं को भी भविष्यवक्ता समझने लगते हैं।